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स्थाद्वादम
अत्र चाचार्यो भविष्यत्कालप्रयोगेण योगिनामप्यशक्यानुष्ठानं भगवद्गुणस्तवनं मन्यमानः श्रद्धामेव स्तुतिकर- राजै.शा. णेऽसाधारणं कारणं ज्ञापयन् यत्नकरणमेव मदधीनं न पुनर्यथावस्थितभगवद्गुणस्तवनसिद्धिरिति सूचितवान् । अहमिति च गतार्थत्वेऽपि परोपदेशान्यानुवृत्त्यादिनिरपेक्षतया निजश्रद्धयैव स्तुतिप्रारम्भ इति ज्ञापनार्थम् ।। ___ 'यतिष्ये' अर्थात् यत्न करूंगा। यहांपर जो आचार्यने भविप्यत्कालका प्रयोग किया है, इससे भगवान्के गुणोंकी स्तुति योगियोंसे अर्थात् दिव्यज्ञानके धारक मुनियोंसे भी नही हो सकती है। इसप्रकार मानते हुए और स्तुतिके करनेमे भक्ति ही एक असाधारण कारण है, ऐसा दूसरोंको जनाते हुए आचार्यने ' भगवान्के गुणोंकी स्तुति करनेमें प्रयत्नका करना ही मेरे आधीन है और भगवान्में जैसे गुण विद्यमान है, वैसे गुणोंके स्तवनकी सिद्धि मेरे आधीन नहीं है। ऐसा आशय सूचित किया है। और ' यतिष्ये' यहापर जो उत्तम पुरुषका एक वचन दिया गया है, इससे यद्यपि 'अहं' यह कर्त्ताको बोधन करनेवाला शब्द स्वयं ही आसकता था, तथापि परके उपदेशकी और अन्य (दूसरे) की अनुवृत्ति आदिकी अपेक्षा न करके मै मेरी भक्तिके वशसे ही
स्तुतिका प्रारभ करता हूं, यह समझानेके लिये ' अह ' यह पद दिया गया है । Nil अथवा-श्रीवर्द्धमानादिविशेषणचतुष्टयमनन्तविज्ञानादिपदचतुष्टयेन सह हेतुहेतुमद्भावेन व्याख्यायते । यत । एव श्रीवर्द्धमानमतएवाऽनन्तविज्ञानम् । श्रिया कृत्स्नकर्मक्षयाविर्भूताऽनन्तचतुष्कसंपद्रूपया वर्द्धमानम् । यद्यपि ।
वर्द्धमानस्य परमेश्वरस्यानन्तचतुष्कसंपत्तेरुत्पत्त्यनन्तरं सर्वकालं तुल्यत्वाच्चयापचयौ न स्तस्तथापि निरपचयत्वेन शाश्वतिकावस्थानयोगाद्वर्द्धमानत्वमुपचर्यते । यद्यपि च श्रीवर्द्धमानविशेषणेनानन्तचतुष्कान्त वित्वेनान
न्तविज्ञानत्वमपि सिद्धम् । तथाप्यनन्तविज्ञानस्यैव परोपकारसाधकतमत्वाद्भगवत्प्रवृत्तेश्च परोपकारैकनिबन्धनत्वाIN||दनन्तविज्ञानत्वं शेषानन्तत्रयात्पृथग निर्धार्याचार्येणोक्तम् ।
___ अथवा ' श्रीवर्द्धमानं ' इत्यादि जो श्लोकके उत्तरार्धमें चार विशेषण है, उनका 'अनन्तविज्ञानं' इत्यादि पूर्वार्धके चार पदोंके
साथ हेतुहेतुमद्भावसे अर्थात् ' श्रीवर्धमान' यह तो हेतु ( कारण ) है और 'अनन्तविज्ञान' यह हेतुमत् ( कार्य ) है । इस IN रूपसे व्याख्यान करते है । भगवान् श्रीवर्द्धमान है अर्थात् सपूर्ण कर्मोके नागसे प्रकट हुई जो अनन्तचतुष्टयसंपदारूप लक्ष्मी है,