SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 342
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ स्थाद्वादन. ॥१६॥ जै.शा. समान तथा मूत पिशाचोंकर घिरे हुएके समाम वह है ऐसा समानपना दिखानेवाला अर्थ'वा' शब्दका होता है। अर्थात् वह अधमरा पुरुष बातकी तथा पिशाचकीकी समानता रखता है। ___“वातातीसारपिशाचात्कश्चान्तः" इत्यनेन मत्वर्थीयः कश्चान्तः। एवं पिशाचकीत्यपि । यथा किल वातेन पिशाचेन वाक्रान्तवपुर्वस्तुतत्त्वं साक्षात्कुर्वन्नपि तदावेशवशादन्यथा प्रतिपद्यते एवमयमप्येकान्तवादापस्मारपरवश इति । ___ “वाताऽतीसारपिशाचात्कश्चान्तः" इस व्याकरणके सूत्रकर वात शब्दसे तथा पिशाच शब्दसे 'वात अथवा पिशाच जिसको लगा हो' ऐसे मत्वर्थमें इन् प्रत्यय तथा उस प्रत्ययके पहिले उस शब्दके अंतमें क प्रत्यय होकर बातकी पिशाचकी शब्द बनते है। ५ जिस प्रकार वातकर अथवा भूतपिशाचोंकर घिरा हुआ मनुष्य प्रत्येक चीजको प्रत्यक्ष देखता हुआ भी बात अथवा भूतपिशाचोंके वश होकर कुछ अन्यथा ही समझता तथा बकने लगता है उसी प्रकार आपका निंदक भी एकांतवादरूपी मृगीरोगके अथवा भूत भू पिशाचौके परवश होनेसे कुछ अन्यथा ही मानता तथा बकता है। ___ अत्र च जिनेति साभिप्रायम् । रागादिजेतृत्वाद्धि जिनः । ततश्च यः किल विगलितदोषकालुष्यतयाऽवधेयवचनस्यापि तत्रभवतः शासनमवमन्यते तस्य कथं नोन्मत्ततेति भावः। नाथ हे स्वामिन् । अलब्धस्य सम्यग्दर्शनादेलेम्भकतया लब्धस्य च तस्यैव निरतिचारपरिपालनोपदेशदायितया च योगक्षेमकरत्वोपपत्तेनोथः। तस्यामन्त्रणम् । ___ इस स्तोत्रमें जो संबोधनवाचक जिनशब्द कहा है वह कुछ विशेष प्रयोजनकेलिये है । रागादि दोषोको जीतनेसे जिन कहते हैं । रागादि दोष नष्ट होजानेसे झूठ बोलना आदिक दोष आपके नष्ट होगये है और इसीलिये आप पूज्य है तथा आपके वचन आदरणीय हैं। ऐसे आपके पथ्यरूप शासनका जो तिरस्कार करता है वह उन्मत्त नहीं है तो कैसा है ? ऐसा भावार्थ है। नाथ अर्थात् हे खामिन्! ऐसा शब्द इसलिये रक्खा है कि नहीं प्राप्त हुए सम्यग्दर्शनादिरूपी तीन रनोंको देनेवाले तथा जिसको ॥१६॥ प्राप्त हो चुके हैं उसको अतीचार रहित पालन करनेका उपदेश देनेवाले होनेसे आप सुखशातिके दाता है और इसीलिये आपको नाथ कहते हैं। प्रार्थना करते समय आपको पुकारनेमें हे नाथ! ऐसा कहा है। CAMERCEDEOS
SR No.010452
Book TitleRaichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParamshrut Prabhavak Mandal
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1910
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy