________________
जै.शा.
स्थाद्वादम.
॥११९॥
होते है। और मानसिक दुःख काम, क्रोध, लोभ, मोह, ईर्ष्याके उत्पन्न होनेसे तथा विषयभोगोंके न मिलनेसे होते है। ये धु सर्व दुःख अंतरंग कारणरूप मनके चिन्तवनमात्रसे होते हैं इसलिये इनको आध्यात्मिक दुःख कहते है । बाह्य कारणोंकी सहायतासे उत्पन्न होनेवाले दुःख दोप्रकार है पहिले आधिभौतिक तथा दूसरे आधिदैविक । इनमेंसे आधिभौतिक तो वे दुःख है जिनकी | उत्पत्ति मनुष्य, पशु, पक्षिओंसे तथा स्थावर पदार्थोंसे हो । आधिदैविक वे हैं जो यक्ष, राक्षस, नवग्रह देवता आदिकोंके कोपादिकसे उत्पन्न हों । ये तीनो प्रकारके दुःख बुद्धिमें रजोधर्मसे उत्पन्न होते है । जब इन दुःखोंका चेतना शक्तिके साथ अनिच्छितरूपसे संबंध होता है तव चेतना शक्तिका अभिघात माना जाता है। __तत्त्वानि पञ्चविंशतिः । तद्यथा । अव्यक्तमेकम् । महदहङ्कारपञ्चतन्मात्रैकादशेन्द्रियपञ्चमहाभूतभेदात् त्रयो विंशतिविधं व्यक्तम् । पुरुषश्च चिद्रूप इति । तथा चेश्वरकृष्णः “मूलप्रकृतिरविकृतिर्महदाद्याः प्रकृतिविकृतयः सप्त । पोडशकश्च विकारो न प्रकृतिर्न विकृतिः पुरुषः" ॥ प्रीत्यप्रीतिविषादात्मकानां लाघवोपष्टम्भगौरवधर्माणां परस्परोपकारिणां त्रयाणां गुणानां सत्त्वरजस्तमसां साम्यावस्था प्रकृतिः । प्रधानमव्यक्तमित्यनान्तरम् । तच्चानादिमध्यान्तमनवय साधारणमशब्दमस्पर्शमरूपमगन्धमव्ययम् । प्रधानादुद्धिर्महदित्यपरपर्यायोत्पद्यते । योयमध्यवसायो गवादिषु प्रतिपत्तिरेवमेतन्नान्यथा, गौरेवायं नाश्वः, स्थाणुरेष नायं पुरुप इत्येषा बुद्धिः । तस्यास्त्वष्टौ
रूपाणि । धर्मज्ञानवैराग्यैश्वर्यरूपाणि चत्वारि सात्त्विकानि। अधर्मादीनि तु तत्प्रतिपक्षभूतानि चत्वारि तामसानि । ॐ तत्त्व पच्चीस हैं । इनमेंसे एक तो अव्यक्तनामक है। दूसरा महान्, तीसरा अहंकार, पांच तन्मात्रा, ग्यारह इन्द्रिय, पांच महाभूत (पृथिवी, जल, अग्नि, वायु, आकाश ) ये तेईस व्यक्तरूप है। पच्चीसवां चेतनाखरूप पुरुष है। ईश्वरकृष्णनामक एक ग्रन्थकारने भी कहा है “ सबका मूल कारण प्रकृति है और वह खय किसीका विकाररूप अर्थात् किसीसे उत्पन्न हुई नहीं है । महदादिक सात तत्त्व प्रकृतिसे उत्पन्न हुए प्रकृतिके विकाररूप है । ग्यारह इन्द्रिय तथा पांच महाभूत ये सोलह तत्त्व विकाररूप ही है । पच्चीसवां पुरुपतत्त्व न तो प्रकृति ही है और न विकृतिरूप " ॥ सत्त्वगुण, रजोगुण तथा तमोगुणकी साम्यरूप ( अनेक विकारोंसे रहित ) अवस्थाका नाम प्रकृति है । जब इनमें विकार होता है तब सत्त्वगुण तो प्रीतिरूप होता है, रजोगुण अप्रीतिरूप होता है और तमोगुण विपादमय होता है । सत्त्वगुणमें लाघवरूप तथा रजोगुणमें उपष्टम्भरूप तथा
॥११९॥