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स्याद्वादम.
॥१५८॥
क्षणभंगुरता माननेमें सर्व व्यवहारोंका लोप होजानेका दोष जो बौद्धोंके ऊपर लगायागया उसकी मरंमत बौद्ध इस प्रकार रा.जै.शा. करेंगे कि यद्यपि संपूर्ण पदार्थ क्षणभगुर है तो भी वासनाके बलसे उत्पन्न हुए अभदज्ञानसे इस लोक तथा परलोक संबधी सपूर्ण व्यवहार चल सकते हैं इसलिये पूर्वकृत कर्मों का नाश होजायगा इत्यादिक दोष कहना असत्य है। बौद्धोंकी इस आशंकाको दूर करनेकी इच्छासे आचार्य महाराज बौद्धकी कल्पना की हुई वासना क्या क्षणपरंपरासे भिन्न है अथवा अभिन्न है अथवा भिन्न भी नही है तथा अभिन्न भी नहीं है ऐसी तीनो कल्पनाओंमेंसे किसी भी कल्पनाके माननेमें बासनाकी सिद्धि नही होती ऐसा दिखाते हुए जैनधर्ममें माने हुए कथंचित् भेदाभेद नही चाहते हुए भी बौद्धोंको मानने पड़ते है ऐसा कहते है।
सा वासना सा क्षणसन्ततिश्च नाऽभेदभेदाऽनुभयैर्घटेते।
ततस्तटाऽदर्शिशकुन्तपोतन्यायात्त्वदुक्तानि परे श्रयन्तु ॥ १९॥ मृलार्थ-सर्वथा एकता मानना अथवा परस्पर भेद ही मानना अथवा भेदाभेद दोनो ही न मानना ऐसे तीन पक्षोंकी कल्पना बौद्धमतमें हो सकती है। परंतु इन तीनो पक्षोमेंसे किसी भी पक्षके माननेसे बौद्धकर संकल्पित कीहुई वासना तथा प्रतिसमय उत्पन्न और नष्ट होते हुए ज्ञानक्षणोकी शृंखला सिद्ध नही होसकती है, इसलिये हे अर्हन् ! जैसे समुद्रके बीच जहाजसे उड़े हुए पक्षीको जब जहाजके अतिरिक्त कोई भी शरण नही दीखता है तब जहाजका ही उसको शरण लेना पड़ता है तैसे बौद्धोंको अपने ५ सिद्धान्तका खडन होजानेसे आपकर कहे हुए कथंचित् भेदाभेदरूप सिद्धातका ही शरण लेना चाहिये। ___ व्याख्या-सा शाक्यपरिकल्पिता त्रुटितमुक्तावलीकल्पानां परस्परविशकलितानां क्षणानामन्योऽन्यानुस्यूतप्रत्ययजनिका एकसूत्रस्थानीया सन्तानापरपर्याया वासना। वासनेति पूर्वज्ञानजनितामुत्तरज्ञाने शक्तिमाहुः। सा च क्षणसन्ततिस्तदर्शनप्रसिद्धा प्रदीपकलिकावन्नवनवोत्पद्यमानापरापरसदृशक्षणपरम्परा । एते द्वे अपिल अभेदभेदाऽनुभयैन घटते । न तावदभेदेन तादात्म्येन ते घटते । तयोहि अभेदे वासना वा स्यात् क्षणपरम्परा
॥१५८ वा; न द्वयम् । यद्धि यस्मादभिन्नं न तत्ततः पृथगुपलभ्यते । यथा घटाद्धटस्वरूपम् । केवलायां वासनायामन्वयिस्वीकारः । वास्याऽभावे च किं तया वासनीयमस्तु ? इति तस्या अपि न स्वरूपमवतिष्ठते । क्षणपरम्परामात्रा