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निरोद्धुमपारयन् पुरुषो व्याकुलतां कलयति । एवं तन्मुखमपि वितण्डापाण्डित्येनासम्बद्धप्रलापचापलमाकलयत् कण्डूलमित्युपचर्यते। | तथा “ वितण्डापाण्डित्यकण्डूलमुखे" खंडित किया जाता है प्रतिपक्ष अर्थात् वादीकरके कहे हुए पक्षका विरोधी होनेसे || प्रतिवादीके पक्षका अर्थात् अपने पक्षका सिद्ध करना जिससे; वह वितंडा है। इस व्युत्पत्तिसे तथा “जो किसी पक्षको खीकार करके फिर उसको स्थिर ( सिद्ध ) नहीं करता है; उसको वैतंडिक कहते है " इस न्यायवार्तिकसे प्रतिपक्ष ( अपने मत ) की स्थापना ( सिद्धि ) से रहित जो वाक्यका कहना है; सो वितंडा है । यथार्थमें तात्पर्य तो यह है कि नहीं किया गया है तत्त्व,
तथा अतत्त्वका विचार जिसमें ऐसा जो मौखर्य ( शीघ्रता से कह देना ) है अर्थात् विना सोचे समझे मुखसे बक देना है: IN उसको वितंडा कहते है; उस वितंडामें जो पाण्डित्य अर्थात् परिपूर्ण चतुरता है; उससे कण्डूल अर्थात् कण्डू ( खाज व खुजली )
है जिसके वह कण्डूल कहलाता है [ · कण्डू' यह शब्द सिध्मादिगणका है; इस कारण यहां मत्वर्थीय ल प्रत्यय हुआ है। ]]|| कण्डूलके समान कण्डूल है अर्थात् खुजलीका धारक है मुख जिसका ऐसे लोकमें । भावार्थ-जैसे अपने शरीरके भीतर पैदा हुए कीड़ोंके समूहसे उत्पन्न हुई खुजलीको रोकने ( मिटाने ) में असमर्थ हुआ पुरुष व्याकुलताको करता है। इसी प्रकार उस.. विवादग्रस्तलोकका जो मुख है; वह भी वितंडाकी चतुराईसे विना संबंधके वकवाद करनेकी चपलताको धारण करता है। इस कारण || यहां पर उस विवादग्रस्तलोकके मुखमें साधर्म्यसे कण्डूल इस शब्दका उपचार किया गया है । [भूचना-यहां पर व्याख्याके अनुसार खंडान्वयकी रीतिसे ही अनुवाद किया गया है; परंतु यदि दूरान्वय होनेके कारण आशय समझमें न आवे तो इस अनुवादमें मूलके शब्दों पर जो दंडान्वयकी रीतिसे अंक दिये गये हैं; उनको क्रमशः लगाकर आशय समझ लेना चाहिये ।] TY
एवं च स्वरसत एव स्वस्वाभिमतमतव्यवस्थापनाविसंस्थुलो वैतण्डिकलोकस्तत्र च तत्परमाप्तभूतपुरुषविशेषपरिकल्पितपरवञ्चनप्रचुरवचनरचनोपदेशश्चेत्सहायः समजनि तदा स्वत एव ज्वालाकलापजटिले प्रज्वलति हुता-||3|| शन इव कृतो घृताहुतिप्रक्षेप इति । तैश्च भवाभिनन्दिभिर्वादिभिरेतादृशोपदेशदानमपि तस्य मुनेः कारुणिकत्व
रचनानाम अर्थज्ञानपूर्वकं प्रागसत्या एव पदानुपूाः करणम् । २ सकटे प्रस्तावे च सति छलादिभिः स्वपक्षस्थापनमभिमतं परविजये हिन| Aधर्मध्वंसादिदोषसम्भवः तस्माद्वर छलादिमिरपि जय इति ।