________________
स्याद्वादमं.
1110 11
प्राकृतप्राये लोके । कथम्भूते स्वयमात्मना परोपदेशनिरपेक्षमेव विवादग्रहिले । विरुद्धः परस्परकक्षीकृतपक्षाधिक्षेपदक्षो वादो वचनोपन्यासो विवादः । तथा च भगवान् हरिभद्रसूरि :- “ लब्धिख्यात्यर्थिना तु स्याद् दुःस्थितेनामहात्मना । छलजातिप्रधानो यः स विवाद इति स्मृतः । १ । ” तेन ग्रहिल इव ग्रहगृहीत इव विवादग्रहिलस्तत्र । यथा ग्रहाद्यपस्मारपरवशः पुरुषो यत्किंचन प्रलापी स्यादेवमयमपि जन इति भावः ।
किसके विषयमें अर्थात् किन शिप्योंमें इस गोतम ऋषीने मायाका उपदेश दिया सो कहते है । - " अस्मिन् " इस प्रत्यक्षप्रमाणसे देखने आते हुए " जैने " तत्त्व और अतत्त्वके विचारसे बहिर्मुख ( रहित ) होनेके कारण मूर्खके समान लोक ( मनुष्यों के समूह ) में । कैसे लोकमें ? " स्वयं " दूसरेके उपदेशकी आवश्यकताके बिना अपने आप ही " विवादग्रहिले " — वि ' विरुद्ध अर्थात् परस्पर ( आपस ) में स्वीकार किया हुआ जो पक्ष है; उसके खंडन करनेमें समर्थ ऐसा जो 'बाद' वचनका देना है अर्थात् दूसरेके मतको खंडन करनेमें समर्थ वचनका जो कहना है; वह विवाद है । सोही भगवान श्रीहरिभद्रसूरी कहते है- " द्रव्य आदिका लाभ तथा अपनी प्रसिद्धि (कीर्ति) को चाहनेवाले ऐसे जो नीच दुर्मती ( कुमतावलम्बी ) जन है; उनके द्वारा जो छल, तथा जातिको मुख्य ग्रहण करके कहा जाता है अर्थात् लाभ व कीर्त्तिके इच्छक नीच दुर्मती छल व जातिको प्रधान कर जो कुछ कहते है; वह विवाद है । १ । " उस विवादसे महिल अर्थात् ग्रह करके पकडे हुएकी तरह जो होवे उस लोक । भावार्थ — जैसे भूत पिशाच आदिके घुस जानेसे स्मृति (बुद्धि) के नाशको प्राप्त हुआ पुरुष चाहे सो बकता है, उसी प्रकार अपने आप ही विवादरूपी ग्रहके वशमें हुआ यह लोक भी जो कुछ ( भला बुरा ) चाहता है, सो बकता है ।
तथा वितण्डा प्रतिपक्षस्थापनाहीनं वाक्यम् । वितण्ड्यते आहन्यतेऽनया प्रतिपक्षसाधनमिति व्युत्पत्तेः । 'अभ्युपेत्य पक्षं यो न स्थापयति स वैतण्डिक इत्युच्यते " इति न्यायवार्त्तिकम् । वस्तुतस्त्वपरामृष्टतत्त्वातत्त्वविचारं मौखर्ये वितण्डा । तत्र यत्पाण्डित्यमविकलं कौशलं तेन कण्डूलं मुखं लपनं यस्य स तथा तस्मिन् । कण्डूः खर्जूः कण्डूरस्यास्तीति कण्डूलम् (सिध्मादित्वान्मत्वर्थीयो लप्रत्ययः) । यथा किलान्तरुत्पन्नकृमिकुलजनितां कण्डूतिं
66
ง
| वादिप्रयुक्तपक्षप्रतिपन्थिप्रतिवाद्युपन्यासः प्रतिपक्षः । कोऽर्थः । यादिपक्षापेक्षया प्रतिपक्षी वैतण्डिकस्य स्वपक्ष एवेति ॥
॥ ७० ॥
रा. जै. सा