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________________ परस्पर विरुद्ध अर्थ दीखता हो वे अप्रमाण ही है । परंतु मोहके नाश होजाने से जिनमें सत्य बोलना प्रकट हुआ है तथा ज्ञानावरणीय कर्मका अत्यंत क्षय होजानेसे सर्वज्ञपना प्रकट हुआ है ऐसे आप्त भगवान्ने जो आगम कहे है वे प्रमाण है । क्योंकि; आप्तकथित शास्त्रोंमें कष ( जीवोंकी हिंसा ), छेद तथा ताप इत्यादिके द्वारा दुष्कर्मोका सर्वथा निषेध किया है । जिन शास्त्रोमें किसी स्थानपर तो हिंसादिकसे पाप तथा कहीपर पुण्य होना कहा हो उन्ही में परस्पर वचनविरोध संभव है । परंतु जिन शास्त्रोंमें हिसादिक करनेवालेको सर्वथा पापी ही कहा हो वे शास्त्र किसी प्रकार अप्रमाण नही होसकते है । कष, छेद तथा तापका खरूप आगे चलकर ३२ वें श्लोकके अर्थमें कहगे | न च वाच्यमाप्तः क्षीणसर्वदोषस्तथाविधं चाप्तत्वं कस्यापि नास्तीतिः यतो रागादयः कस्यचिदत्यन्तमुच्छिद्यन्ते अस्मदादिषु तदुच्छेदप्रकर्षापकर्षोपलम्भात् सूर्याद्यावर कजलदपटलवत् । तथा चाहुः “देशतो नाशिनो भावा दृष्टा निखिलनश्वराः । मेघपङ्क्त्यादयो यद्वदेवं रागादयो मताः" इति । यस्य च निरवयवतयैते विलीनाः स एवातो भगवान् सर्वज्ञः । अथाऽनादित्वाद्रागादीनां कथं प्रक्षय इति चेन्न; उपायतस्तद्भावात्; अनादेरपि सुवर्णमलस्य क्षारमृत्पुटपाकादिना विलयोपलम्भात् तद्वदेवानादीनामपि रागादिदोषाणां प्रतिपक्षभूतरत्नत्रयाभ्यासेन विल्योपपत्तेः । क्षीणदोषस्य च केवलज्ञानाव्यभिचारात्सर्वज्ञत्वम् । तत्सिद्धिस्तु-ज्ञानतारतम्यं क्वचिद्विश्रान्तं तारतम्यत्वादाकाशपरिमाणतारतम्यवत् । तथा सूक्ष्मान्तरितदूरार्थाः कस्यचित्प्रत्यक्षा अनुमेयत्वात् क्षितिधरकन्धराधिकरणधूमध्वजवत् । एवं चन्द्रसूर्योपरागादिसूचकज्योतिर्ज्ञानाविसंवादान्यथाऽनुपपत्तिप्रभृतयोsपि हेतवो वाच्याः । तदेवमाप्तेन सर्वविदा प्रणीत आगमः प्रमाणमेव । तदप्रामाण्यं हि प्रणायकदोषनिबन्धनं; " रागाद्वा द्वेषाद्वा मोहाद्वा वाक्यमुच्यते ह्यनृतम् । यस्य तु नैते दोपास्तस्याऽनृतकारणं किं स्यात्" इति वचनात् । प्रणेतुश्च निर्दोषत्वमुपपादितमेव । इति सिद्ध आगमादण्यात्मा “एगे आया" इत्यादिवचनात् । रागादि संपूर्ण दोष जिसके नष्ट होगये हों वह आप्त है। ऐसा आप्त होना असंभव नही है । रागादिक संपूर्ण दोष किसी जीवमें अत्यंत नष्ट होसकते है । क्योंकि; उन रागादि भावोंकी हमलोगों में हीनाधिकता होती दीखती है । जिन विकारों की कभी कही पर हीनाधिकता दीखती है वे विकार कभी कहीपर सर्वथा नष्ट भी होजाते है । जिस प्रकार सूर्यके प्रकाशको रोकनेवाले |
SR No.010452
Book TitleRaichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParamshrut Prabhavak Mandal
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1910
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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