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________________ होसकता है। क्योंकि, प्रत्यक्षसे वही पदार्थ जाना जासकता है जो इंद्रियगोचर हो । यदि मुखकी प्रसन्नता आदिक चेष्टाके द्वारा दूसरोका विचार समझा जाता हो तो नहीं चाहते हुए भी नास्तिकको अनुमानप्रमाण खीकारना पड़ेगा । क्योंकि चेष्टा एक प्रकारका हेतु अथवा चिन्ह है । चिन्हको देखनेसे जो ज्ञान उपजता है उसीको अनुमान ज्ञान कहते है । चेष्टा देखकर जाना हुआ पदार्थज्ञान यदि वचन द्वारा कहा जाय तो अनुमान ही प्रतीत होता है । जैसे-नास्तिक विचार करता है कि मेरे वचनको यह वादी अवश्य सुनना चाहता है । क्योंकि, यदि नहीं चाहता होता तो इस वादीके मुखकी चेष्टा ऐसी न होती। अर्थात्यह अनुमान लिखनेसे यह कहना स्पष्ट होता है कि जो चेष्टा देखनेसे अभिप्राय समझा जाता है वह अनुमान ही है । इसलिये हहा अर्थात् बड़े खेदकी बात है कि नास्तिकका यह बड़ा प्रमाद है जो अनुमान प्रमाणका अनुभव करते हुए भी केवल प्रत्यक्षको ही प्रमाण मानकर अनुमानको खीकार नही करता है। अत्र च संपूर्वस्य वेत्तेरकर्मकत्वे एवात्मनेपदम् । अत्र तु कर्मास्ति । तत्कथमत्रानश्? अत्रोच्यते । अत्र संवेदितुं ॥ शक्तः संविदान इति कार्य " वयःशक्तिशीले” इति शक्तौ शानविधानात् । ततश्चायमर्थोऽनुमानेन विना पराभिसंहितं सम्यग्वेदितुमशक्तस्येति । एवं परबुद्धिज्ञानाऽन्यथाऽनुपपत्त्याऽयमनुमानं हठादङ्गीकारितः। __संविदानस्य ' ऐसा शब्द जो स्तुतिकर्ताने बोला है वह सं' पूर्वक विद धातुके आगे आनश् प्रत्यय होनेपर बनता है और यह आनश् प्रत्यय आत्मनेपद होनेपर ही होसकता है । संपूर्वक विद धातु यदि अकर्मक हो तभी व्याकरणमें आत्मनेपदी करनेकी आज्ञा है । क्रियाके द्वारा प्राप्त होनेवाले भावको कर्म कहते है । जैसे अमुक मनुष्य दूध पीता है । यहांपर पीनेरूप क्रियाके द्वारा प्राप्त होनेवाला दूध है इसलिये दूध ही कर्म है । इसी प्रकारसे जो धातु किसी कर्मका संबंध रखता हो वह सकर्मक कहा || जाता है । जिस धातुका कोई कर्म संभव नहीं होता वह अकर्मक कहाता है। संविद धातुका इस श्लोकमें जब 'पराभिसन्धिम्' अर्थात् दूसरोके अभिप्रायको ऐसा कर्म विद्यमान है तब संविद धातुके आगे आनश् प्रत्यय किस प्रकार होसकता है और यदि आनश प्रत्यय नहीं किया जायगा तो 'संविदानस्य' यह शब्द किस प्रकार वनेगा? इसका उत्तर ।-यहांपर इस शब्दको इस || प्रकार बनाना चाहिये कि जो 'संवेदितुं' अर्थात् जाननेकेलिये समर्थ हो वह संविदान है। यहांपर "वयःशक्तिशीले" इस सूत्रकर सामर्थ्य अर्थमें शान प्रत्यय करनेसे संविदान शब्द वनसकता है । अर्थात् इस सूत्रकर शान प्रत्यय करनेमें अकर्मक धातुके आगे
SR No.010452
Book TitleRaichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParamshrut Prabhavak Mandal
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1910
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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