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________________ प्रादुर्भाव होना ही परिणाम है "। यहांपर जिस प्रकार सर्वथा नित्य अथवा अनित्य माननेमें दोष दिखाये हैं उसी प्रकार सर्वथा सामान्य, विशेष, सत्, असत्, वक्तव्य अथवा अवकव्य खरूप माननेमें भी सुखदुःखादिकका नही होसकना विद्वानोको स्वयं | विचार लेना चाहिये । अथोत्तरार्द्धव्याख्या । एवमनुपपद्यमानेऽपि सुखदुःखभोगादिव्यवहारे परैः परतीर्थिकैरथ च परमार्थतः शत्रुभिः | ( परशब्दो हि शत्रुपर्यायोऽप्यस्ति ) दुर्नीतिवादव्यसनासिना । नीयते एकदेशविशिष्टोऽर्थः प्रतीतिविषयमाभिरिति नीतयो नयाः । दुष्टा नीतयो दुतियो दुर्नयाः । तेषां वदनं परेभ्यः प्रतिपादनं दुर्नीतिवादः । तत्र यद्व्यसनमत्या| सक्तिरौचित्यनिरपेक्षा प्रवृत्तिरिति यावत्, दुर्नीतिवादव्यसनम् । तदेव सद्बोधशरीरोच्छेदनशक्तियुक्तत्वादसिरिवासिः कृपाणो दुर्नीतिवादव्यसनासिः । अब लोकके उत्तरार्धका व्याख्यान करते हैं । इस प्रकार एकान्त पक्षोंके माननेमें सुखदुःखादि व्यवहार सिद्ध नही होते हुए भी अन्य धर्मोंके प्रवर्तक जनोने उस दुर्नीतिवादके व्यसनरूपी खड्गसे संपूर्ण संसारका नाश कर रक्खा है । प्रार्थना करनेका | प्रयोजन यह है कि; हे भगवन्! आप उनसे रक्षा करो । 'पर' शब्दका अर्थ शत्रु होता है । अथवा लोकमें पड़े हुए उस ' पर ' | शब्दका अर्थ परमार्थके शत्रु होता है । क्योंकि, शत्रु जिस प्रकार अपने शत्रुका सर्वथा नाश करनेवाला होता है उसी प्रकार इन्होने खोटे मार्गोंका प्रतिपादन करके जगत् के जीवोको अपायके मार्गमें लगाकर अत्यंत दुःखी कररक्खा है। एक अंश अथवा धर्म | विशिष्ट वस्तुका निश्चय जिनके द्वारा हो उनको नीति अथवा नय कहते है । नयको ही विवक्षा अथवा अपेक्षा भी कहते हैं । ये ही नीति यदि खोटी अपेक्षारूप हों तो इनको दुर्नय कहते हैं । दुर्नयोको दूसरोंके आगे जो कहना सो दुर्नीतिवाद है । इस दुर्नीतिवादमें व्यसन अथवा अत्यंत आसक्तता रेखनेका नाम दुर्नीतिवादव्यसन है । अर्थात् व्यसन उसका नाम है जिसके होनेपर उचित अनुचितका विचार नही करते हुए ही प्रवृत्ति हो । यह जो दुर्नीतिवादव्यसन है वह एक प्रकार खनके समान है । क्योंकि; सच्चा ज्ञानरूपी शरीर इसके चलानेसे कट जाता है । खड्गको असि कहते है । इसीलिये इसको दुर्नीतिवादव्यसनासि कहा है । । तेन दुर्नीतिवादव्यसनासिना करणभूतेन दुर्नयप्ररूपणहेवाकखङ्गेन । एवमित्यनुभवसिद्धं प्रकारमाह । अपि| शब्दस्य भिन्नक्रमत्वादशेषमपि जगन्निखिलमपि त्रैलोक्यं, तात्स्थ्यात्तद्व्यपदेश इति त्रैलोक्यगतजन्तुजातं विलुप्तं;
SR No.010452
Book TitleRaichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParamshrut Prabhavak Mandal
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1910
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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