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पूर्वपर्यायका सर्वथा सम्बंधरहित नाश होचुकता है इसलिये अपनी उत्पत्तिके दूसरे समयमें जब खयं आप ही नहीं है तब उत्तरक्षणवर्ती पर्यायकी उत्पत्ति करना किस प्रकार संभव हो? और उपादानके विना किसीकी उत्पत्ति होती भी नही है। यदि होने लगे तो अतिव्याप्ति दोष आजायगा । अर्थात् विना उपादान कारणके भी यदि कार्यकी उत्पत्ति मानी जाय तो विना माताके पुत्रकी उत्पत्ति होना। इत्यादि प्रकारसे कार्यकारणादि नियमोका भंग होजायगा। इसीलिये यह ठीक कहा है " हेतौ विलीने न फलस्य भावः " अर्थात् उपादान कारणका सर्वथा ( निरन्वय ) नाश होनेपर कार्यकी उत्पत्ति नहीं होसकती है । इस आधे श्लोकका शब्दार्थ तो पहिले ही कह दिया था। यहां तो केवल फलरूप उपादेय अर्थात् कार्य और हेतुरूप उपादान कारणका कार्यकारणभाव ( उपादानोपादेयभाव) संबंधमात्र दिखाया है। | यच्च क्षणिकत्वस्थापनाय मोक्षाकरगुसेनानन्तरमेव प्रलपितं तत् स्याद्वादवादे निरवकाशमेव निरन्वयनाशवर्ज;
कथंचित्सिद्धसाधनात् प्रतिक्षणं पर्यायनाशस्यानेकान्तवादिभिरभ्युपगमात् । यदप्यभिहितं न ह्येतत् संभवति जीवनाति च देवदत्तो मरणं चास्य भवतीति तदपि संभवादेव न स्याद्वादिनां क्षतिमावहति । यतो जीवनं प्राणधाकरणं मरणं चायुर्दलिकक्षयः। ततो जीवतोऽपि देवदत्तस्य प्रतिसमयमायुर्दलिकानामुदीर्णानांक्षयादुपपन्नमेव मरणम् ।
न च वाच्यमन्त्यावस्थायामेव कृत्स्नायुर्दलिकक्षयात् तत्रैव मरणव्यपदेशो युक्त इति; तस्यामप्यवस्थायां न्यक्षेण तत्क्षयाऽभावात् । तत्रापि ह्यवशिष्टानामेव तेषां क्षयो न पुनस्तत्क्षण एव युगपत्सर्वेषाम् । इति सिद्धं गर्भादारभ्य प्रतिक्षणं मरणमित्यलं प्रसङ्गेन। __अब क्षणिकपना सिद्ध करनेके अभिप्रायसे मोक्षाकरगुप्तने अभी हालमें जो कुछ प्रलाप किया है वह (नाश) भी स्याद्वादमय || कथनमें अवकाशरहित निरन्वय नाश छोड़कर पर्यायकी अपेक्षा सिद्ध होता है इसलिये किसी अपेक्षासे सिद्ध हुएका ही सिद्ध करना है। क्योंकि पर्यायका नाश अनेकान्तवादियोने भी माना ही है। और भी जो " यह नही संभव है कि देवदत्त जीरहा है और मरण भी उसका होता है। ऐसा दोष अभी पूर्वमें कहा गया है सो वह भी स्याद्वादियोंकेलिये हानिकारक नहीं क्योंकि; जीवन नाम प्राणधारणका है और मरण आयुके अंशोके नाश होनेका नाम है इसलिये प्राणधारण रहनेसे जीते हुए भी देवदत्तका प्रतिसमय उदय आनेवाले आयुके निषेकोका अर्थात् आयुकर्मके हिस्सोका फलदेनेके अनंतर क्षय होते रहनेसे प्रत्येक