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________________ द्वादम. रा.जै.शा. ११३०॥ अविद्याके वश होनेसे ऐसा प्रत्यभिज्ञान होता है कि यह वही है। पूर्व क्षणके नष्ट होते ही उसके समान दूसरा क्षण उत्पन्न हो- जाता है इस प्रकार कभी भी पूर्वाकारका नाश न दीखनेसे और पूर्व क्षणके नाश तथा उत्तर क्षणकी उत्पत्तिमें अंतर (व्यवधान) न पड़नेसे पूर्व पर्यायका सर्वथा नाश होनेपर भी वह ही यह है ऐसी अभेदबुद्धि उत्पन्न होसकती है। पहिले काटडाले हुए तथा फिरसे उत्पन्न हुए कुशा (त्रणविशेष), केशादिकोंकी पूर्वापर अवस्थाओमें अत्यन्त भेद होनेपर भी यह वही है ऐमा ज्ञान उत्पन्न होता हुआ जैसे दीखता है तैसे ही यहांपर (प्रकरणमें) भी क्यों सभव न हो? इस प्रकार सपूर्ण सत्पदार्थ क्षणिक ही हैं ऐसा सिद्ध हुआ। यहांपर (क्षणध्वंसी स्वभावमें) पूर्वक्षण तो उपादोन कारण है और उत्तरक्षण उसका कार्य (उपादेय) है । इस प्रकार जो नौद्धोका अभिप्राय है उसका निराकरण करनेके अभिप्रायसे ही आचार्यने उपरिके श्लोकमें "न तुल्यकालः" इत्यादि कहा है। की ते विशकलितमुक्तावलीकल्पा निरन्वयविनाशिनः पूर्वक्षणा उत्तरक्षणान् जनयन्तः किं स्वोत्पत्तिकाले एव जन यन्ति उत क्षणान्तरे ? न तावदाद्यः समकालभाविनोयुवतिकुचयोरिवोपादानोपादेयभावाऽभावात् । अतः साधूक्तः “न तुल्यकालः फलहेतुभावः” इति। न च द्वितीयः। तदानीं निरन्वयविनाशेन पूर्वक्षणस्य नष्टत्वादुत्तरक्षणजनने कुतः संभावनापि? न चानुपादानस्योत्पत्तिर्दृष्टा; अतिप्रसवात्। इति सुष्ठ व्याहृतं "हेत विलीने न फलस्य भावः" इति । पदार्थस्त्वनयोः पादयोः प्रागेवोक्तः । केवलमत्र फलमुपादेयं हेतुरुपादानं तद्भाव उपादानोपादेयभाव | इत्यर्थः। | वे सर्वथा खतब टूटी हुई मोतियोंकी मालाके समान उत्तरपर्यायको विना उत्पन्न किये ही सर्वथा नष्ट होते हुए पूर्वक्षणवर्ती जपर्याय क्या अपने उत्पत्तिके समय ही उत्तरक्षणवर्ती पर्यायोको उत्पन्न करदेते हैं अथवा उत्पत्तिसमयके वाद ? अपने उत्पत्तिसमयमें तो वे उत्तरक्षणवर्ती पर्यायोंको उत्पन्न कर नहीं सकते। क्योंकि युवतिके दोनो कुचोंके समान एक ही कालमें होनेवाले दो पदाथोंमें 7 उपादान तथा उपादेयपना अर्थात् कारणकार्यपना नहीं होसकता है। इसीलिये यह ठीक कहा है "न तुल्यकालः फलहेतुभावः।" अर्थात् एक ही समयमें कार्यको उत्पन्न करनेवाला उपादान कारण तथा उसका कार्य संभव नहीं होसकते है। दूसरे पक्षसे भी अर्थात् ४ खय उत्पन्न होनेके बाद भी उत्तरक्षणवर्ती पर्यायोंको उत्पन्न करना संभव नहीं है। क्योंकि उस दूसरेही क्षणमें उपादान कारणरूप 2. जो असत्य संसारको सत्यरूप अनुभव करावे वह अविद्या है। २ किसी भी उत्पन्न हुए पर्यायकी पूर्व अवस्थाको उसका उपादान कारण कहते हैं। ॥१३०॥
SR No.010452
Book TitleRaichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParamshrut Prabhavak Mandal
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1910
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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