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________________ iamin ऐसे जो वैशेषिक और नैयाचिका प्रतीत होते हैं । को धारक होते हैं वे एक प्रकार ये दोनों कि स्थाद्वादमं. ॥११॥ तिहिं स विशेषच व्यवहारं न प्रविष्यता तद्ग्रालती है, तो उस विशेषवह विशेषकी प्राप्ति गर्दन होनेस प्रमाता (हा नहीं । नैगमनयका अनुसरण करनेवाले ऐसे जो वैशेषिक और नैयायिक हैं वे कहते हैं कि, सामान्य तथा विशेष ये दोनो स्वतंत्र राजेश (खाधीन अर्थात् परस्पर निरपेक्ष ) है। क्योंकि, प्रमाणद्वारा ऐसे ही प्रतीत होते है । सो ही दिखलाते हैं। सामान्य और विशेष ये दोनों अत्यत भिन्न है। क्योंकि, विरुद्ध धर्मका धारण करनेवाले है। जो विरुद्ध धर्मके धारक होते हैं वे एक दूसरेसे अत्यंत भिन्न होते है। जैसे कि जल और अग्नि। ये दोनों परस्पर विरुद्ध धर्मके धारक होनेसे अत्यंत भिन्न है। उसी प्रकार ये दोनो सामान्य विशेष भी विरुद्ध धर्मके धारक है इस कारण अत्यत भिन्न है । क्योंकि गोव (गौपना) आदि जो सामान्य है वह तो सर्वव्यापी है और गौव्यक्तिमें प्राप्त जो कर्बुरवर्ण तथा चित्रवर्ण आदि रूपविशेष है, वे सामान्यसे विपरीत अर्थात् असर्वगत है। इस कारण सामान्य और विशेष इन दोनोंकी एकता कैसे ठीक हो सकती है अर्थात् सामान्य और विशेष ये दोनों एक नहीं है। का न सामान्यात्पृथग्विशेषस्योपलम्भ इति चेत् कथं तर्हि तस्योपलम्भ इति वाच्यम् ? सामान्यव्याप्तस्येति चेन्न तर्हि स विशेषोपलंभः, सामान्यस्यापि तेन ग्रहणात् । ततश्च तेन बोधेन विविक्तविशेषग्रहणाऽभावात् तद्वाचकं धू ध्वनि तत्साध्यं च व्यवहारं न प्रवर्तयेत्प्रमाता। न चैतदस्ति; विशेषाभिधानव्यवहारयोः प्रवृत्तिदर्शनात् । तस्माद्विशेषमभिलपता तत्र च व्यवहारं प्रवत्तयता तद्ग्राहको वोधो विविक्तोभ्युपगन्तव्यः। | यदि कहो कि, सामान्यसे जुदा विशेष कहीं नहीं मिलता है, तो उस विशेषकी प्राप्ति किस प्रकारसे हो सकती है सो बताना चाहिये । यदि कहो कि, सामान्यके साथ मिले हुए विशेषकी प्राप्ति होती है तो वह विशेषकी प्राप्ति नहीं हुई । क्योंकि, उसके द्वारा सामान्यका भी ग्रहण होता है । और इस कारण उस ज्ञानद्वारा सामान्यसे भिन्न शुद्ध विशेषका ग्रहण न होनेसे प्रमाता (ज्ञान कर-27 नेवाला ) उस विशेषके कहनेवाली ध्वनि (शब्द) को और उस शब्दसे साध्य ऐसे व्यवहारको नहीं प्रवर्गवे । परंतु ऐसा है नहीं। क्योंकि, विशेषके वाचक शब्द की तथा विशेषजन्य व्यवहारकी प्रवृत्ति देखी जाती है। इस कारण विशेपको चाहनेवाले और उसमें व्यवहारके प्रवर्त्तावनेवाले पुरुषको उस विशेषका ग्रहण करनेवाला भिन्न ज्ञान खीकार करना चाहिये। __ एवं सामान्यस्थाने विशेपशव्दं विशेषस्थाने च सामान्यशब्दं प्रयुञ्जानेन सामान्येऽपि तद्ग्राहको बोधो विवितोऽङ्गीकर्तव्यः। तस्मात्स्वस्वग्राहिणि ज्ञाने पृथक् प्रतिभासमानत्वाद् द्वावपीतरेतरविशकलितौ । ततो न सामान्यविशेषात्मकत्वं वस्तुनो घटते । इति स्वतन्त्रसामान्यविशेषवादः। चाहिये । याद ग्रहण होता हवाली ध्वनि पजन्य व्यवहानवाला मिन जानेन साततरविशकांत नेवाला विशेषके वाचक शकरुपको उस विशेषकाने च सामान्यासमानत्वाद् द्वार ॥११०॥
SR No.010452
Book TitleRaichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParamshrut Prabhavak Mandal
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1910
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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