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1 किया है, अतः वह पुत्र उस पुण्यका भागी नहीं हो सकता है । और ऐसा होनेपर वह पुण्य पिता और पुत्र इन दोनोमेंसे
किसी एकको भी न हुआ, त्रिशंकुराजाके दृष्टान्तसे बीचमें ही नष्ट होगया। भावार्थ-जैसे-त्रिशंकुनामक राजा वशिष्ठ ऋपिके
शापसे चांडाल होगया और विश्वामित्रजीकी सहायतासे यज्ञ करके पृथ्वीको छोड़कर स्वर्गमें जाने लगा परन्तु इन्द्रने कुपित ल होकर उसको खर्गमें नहीं आने दिया, तब वह त्रिशंकु पृथ्वी और खर्ग इन दोनोंके वीचमें ही लटकता रहगया, यह तुम्हारे
पुराणोंकी कथा है; उसी प्रकार वह श्राद्धसे उत्पन्न हुआ पुण्य पूर्वोक्त प्रकारसे पिता और पुत्र इन दोनोंमेंसे किसीको भी प्राप्त न होकर बीचमें ही रह गया । और भी विशेष यह है कि, वह श्राद्ध आदिसे उत्पन्न हुआ पुण्य पापको | उत्पन्न करता है अर्थात् अपना फल देकर पश्चात् पापमें प्रवृत्ति करता है अतः यथार्थमें वह पुण्य भी पापरूप ही है । अब यदि यह कहो कि,-"ब्राह्मणोंकरके खाया हुआ अन्न उनके अर्थ प्राप्त होता है । तो इस तुम्हारे कथनकी कौन प्रतीति करे। क्योंकि, उस भोजनसे केवल ब्राह्मणोंके उदरका ही मोटा होना देखते हैं । और 'उन ब्राह्मणोंके शरीरमें उन पितृजनोंका | प्रवेश होता है । इस कथनका तो श्रद्धान भी नहीं किया जा सकता है, क्योंकि भोजनके समयमें अर्थात् जब ब्राह्मणोंको भोजन कराया जाता है। उस समय ब्राह्मणोंके शरीरमें पितजनोंके प्रवेशको सिद्ध करनेवाला कोई चिन्ह देखने में नहीं आता। है तथा ब्राह्मणोंकी ही तृप्ति प्रत्यक्षमें देखी जाती है । और आकुलतापूर्वक अत्यन्त लोलुपतासे बड़े २ ग्रासोंद्वारा उस भोजनको खाते हुए वे ब्राह्मण ही प्रेतोंके समान प्रतीत होते हैं । इसकारण श्राद्धादिका करना वृथा ही है। और जो गयाश्राद्ध आदिकी याचना देखी जाती है अर्थात् लोकमें जो कितने ही पितृजन पुत्रादिके शरीरमें प्रविष्ट होकर पुत्रादिकोंको गयाश्राद्ध आदि करने के लिये कहते हैं; वह भी उसी प्रकारके जो धोखा देनेवाले और विभङ्गज्ञानके धारक व्यन्तर ( भूत पिशाच ) आदि नीच देव है; उनका किया हुआ ही समझना चाहिये ।
यदप्युदितमागमश्चात्र प्रमाणम् । तदप्यप्रमाणम् । स हि पौरुषेयो वा स्यात् , अपौरुपेयो वा । पौरुषेयश्चेत् | सर्वज्ञकृतः, तदितरकृतो वा । आद्यपक्षे युष्मन्मतव्याहतिः। तथा च भवसिद्धान्तः-" अतीन्द्रियाणामर्थानां साक्षाद्रष्टा न विद्यते । नित्येभ्यो वेदवाक्येभ्यो यथार्थत्वविनिश्चयः ॥१॥” द्वितीयपक्षे तु तत्र दोपवत्कर्तृत्वेनाऽनाश्वासप्रसङ्गः । अपौरुषेयश्चेत् न संभवत्येव । स्वरूपनिराकरणात् तुरङ्गशृङ्गवत् । तथाहि "उक्तिर्वचनमु