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स्याद्वादमं.
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वे नरकमे रहते हैं । भावार्थ — जिन्होंने पुण्य किया है; वे खर्गमें सुखको ही भोगा करते हैं और जिन्होंने पाप किया दुःख ही भोगा करते है । इसकारण वे पितृजन, पुत्रादिकोंद्वारा दिये हुए पिंडका भोजन करनेके लिये इच्छा के धारक भी कैसे हो सकते हैं अर्थात् नहीं हो सकते हैं । सो ही तुम्हारे साथी कहते है कि - "यदि श्राद्ध मरे हुए जीवोंकी भी तृप्तिका कारण है तो तैल भी बुझे हुए दीपककी शिखाको बढ़ावे” । भावार्थ — जैसे दीपकके बुझ जानेपर तैल उस दीपककी शिखाको नही बढ़ाता है, उसीप्रकार श्राद्ध भी मृतक जीवोंको तृप्त नही करता है । और श्राद्ध आदि करनेसे प्राप्त किया हुआ जो पुण्य है; वह उन मृत पितृजनोंके समीप कैसे जावे, क्योंकि वह पुण्य उनसे भिन्न जो पुत्रादिक है उनसे किया हुआ है, जडरूप तथा चरणों (पगों) से रहित है ।
अथ तेषामुद्देशेन श्राद्धादिविधानेऽपि पुण्यं दातुरेव तनयादेः स्यादिति चेत् तन्न । तेन तज्जन्यपुण्यस्य स्वाध्यवसायादुत्तारितत्वात् । एवं च तत्पुण्यं नैकतरस्यापि इति विचाल एव विलीनं त्रिशंकुज्ञातेन किन्तु पापानुबन्धिपुण्यत्वात् तत्त्वतः पापमेव । अथ विप्रोपभुक्तं तेभ्य उपतिष्ठत इति चेत्कइवैतत्प्रत्येतु । विप्राणामेत्र मेदुरोदरतादर्शनात् । तद्वपुषि च तेषां संक्रमः श्रद्धातुमपि न शक्यते । भोजनावसरे तत्संक्रमलिङ्गस्य कस्याप्यनवलोकनात्, विप्राणामेव च तृप्तेः साक्षात्करणात् । यदि परं त एव स्थूलकवलैराकुलतरमतिगार्थ्याद्भक्षयन्तः प्रेतप्रायाः । इति मुधैव श्राद्धादिविधानम् । यदपि च गया श्राद्धादियाचनमुपलभ्यते तदपि तादृशविप्रलम्भकविभङ्गज्ञानिव्यन्तरादिकृतमेव निश्चेयम् ।
उससे दान देनेवाले पुत्रादिको ही अब यदि ऐसा कहो कि; “ उन पितृजनोंके उद्देशसे जो श्राद्ध आदि किया जाता पुण्य होता है । भावार्थ — पुत्र जो पिताके उद्देशसे श्राद्ध करता है; उस श्राद्धसे उत्पन्न हुआ पुण्य यदि उस पुत्रके पिताको प्राप्त नही होता है, तो न हो, उस पुत्रको तो होताही है । सो नहीं । क्योंकि, उस पुत्रने उस श्राद्ध आदिके करनेसे उत्पन्न हुए पुण्यको अपने अध्यवसायसे उतार दिया है। भावार्थ — पुत्रने उस पुण्यसे अपना कुछ भी सम्बन्ध न रखकर श्राद्धआदि
१ त्रिशकुनीम राजा वशिष्ठशापाच्चण्डालो जातो विश्वामित्रं पुरोधाय कृतक्रतुस्त्यक्तभूतल शक्रकोपेन स्वर्गान्निवर्तितोऽन्तराल एवं स्थित । तस्मान्न चौरपि न भूरपि तस्योपभुक्त्यै तद्वत् ॥
रा. जै.शा.
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