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होगा अर्थात् अर्थोपलब्धिमें छहों ही कारक निमित्तभूत हैं; इसकारण कर्ता कर्म आदि भी प्रमाण हो जावेंगे; जो कि; तुम्हारे अनिष्ट है । और यदि हेतुशब्दसे कर्त्ता कर्म आदिसे भिन्न लक्षणका धारक (जुदे खरूपवाला) ऐसा जो करण है; वह ही विवक्षित है अर्थात् हेतुशब्दसे करणका ही कथन करना चाहते हो; तो उस आत्मा ज्ञानको ही अर्थोपलब्धिमें करण कहना ठीक है। और इन्द्रियसन्निकर्ष ( इंद्रिय और पदार्थके संबंध ) आदिको अर्थोपलब्धिमें करण कहना अनुचित है । क्योकि ; जिसके विद्यमान होनेपर अर्थ उपलब्ध होवे अर्थात् देखा व जाना जावे; वही अर्थोपलब्धिमें करण है । और इंद्रियसन्निकर्ष आदि सामग्री (सहकारी कारणों के समूह ) के विद्यमान होने पर भी ज्ञानका अभाव होवे तो अर्थका उपलम्भ ( ज्ञान ) नहीं होता है । भावार्थ - ज्ञानके होने पर ही अर्थोपलब्धि होती है; न कि; केवल इंद्रिय सन्निकर्ष आदिसे; अतः ज्ञानको ही अर्थोपलब्धिमें हेतु । मानना चाहिये। क्योंकि; जो साधकतम ( कार्यको मुख्यतासे सिद्ध करनेवाला) होता है; वही हेतु (कारण) करण कहलाता है । अर्थात् | जहां जिस कारण को व्यवहार में लानेसे अवश्य ही कार्यकी उत्पत्ति होती है; वही वहां साधकतम होता है और वह करण अव्यव - | हितफल माना गया है अर्थात् उस करणको व्यवहार में लानेसे कार्यरूप फलकी ही उत्पत्ति होती है बीचमें अन्य कुछ भी नहीं | होता है । यदि व्यवहितफलवालेको ( बीचमें अन्य २ कार्योंको करनेके पश्चात् कालान्तरमें अभीष्टकार्यरूप फल देनेवालेको ) भी करण मानें तो दुग्धके भोजन आदिके भी करणता हो जावे । भावार्थ- दुग्धभोजन आदिसे इंद्रिय आदिकी शक्ति बढ़ती है इंद्रिय आदिकी शक्ति हो तब पदार्थके साथ उनका संबंध होनेसे अर्थोपलब्धि होती है; इसप्रकार परंपरासे अर्थोपलब्धिमें कारणभूत जो दुग्ध भोजन आदि है; वह भी करण हो जावें; जो कि तुमको अभीष्ट नही है । इस कारण ज्ञानसे अन्यमें प्रमाणता नहीं है अर्थात् अर्थोपलब्धि में हेतु होनेसे ज्ञान ही प्रमाण है । क्योंकि अन्य स्थलमें अर्थात् कारणमें कार्यका व कार्यमें कारणका | उपचार करके पक्ष तथा हेतुका कथन करने रूप जो परार्थानुमान है; उसमें जो प्रमाणत्व है; वह उपचारसे है । और " जो | अनुभवका सम्यक् ( भले प्रकार ) साधन है, वह प्रमाण है । ऐसा जो न्यायभूषणसूत्रके कर्त्ताने प्रमाणका लक्षण कहा है; उस | लक्षणमें भी साधनका ग्रहण करनेसे कर्ता-कर्म आदिको दूर करने द्वारा करणके ही प्रमाणता सिद्ध होती है । तौ भी अव्यवहितफलपनेसे ज्ञान ही साधकतम ( करण ) है । इस कारण यह भी प्रमाणका लक्षण अच्छा नहीं है । और ' अपने तथा परका निश्चयकरानेवाला जो ज्ञान है; वह प्रमाण है ।' ऐसा जो हम जैनियोंका लक्षण है; वह तो यथार्थ ( सच्चा ) है ।