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SNL अंधे और पंगे ( लंगडे ) के समान प्रकृति और पुरुषका संयोग है । चेतनाशक्ति खयं विषयका निश्चय नहीं कर सकती है। धी
क्योंकि; सुखदुःखादिरूप विषय नालीके समान इद्रियद्वारा वुद्धिमें जाकर झलकते है। अर्थात् इंद्रियोंके मार्गसे दर्पणके सदृश निर्मल बुद्धिमें प्रतिविम्बित होते है। बुद्धिका आकार दोनो ही बाजूसे ( पीछे आगेसे ) दर्पणके समान है। अर्थात् बुद्धि दर्पणके सदृश निर्मल है। इसीलिये उस बुद्धिमें चैतन्यशक्ति प्रतिबिम्बित होती है (प्रकाशती है)। चेतनाशक्तिका बुद्धिमें प्रतिबिम्ब पडनेसे इंद्रियोंद्वारा बुद्धिमें प्रतिभासते हुए सुखदुखा:दि विषयोंका यह भ्रम होने लगता है कि, सुखदुःखादिक चेतनामें झलकते हैं। यह प्रम होनेसे ही पुरुष (आत्मा ) आपेको सुखी दुःखी मानने लगता है और आपेको बुद्धिसे अभिन्न समझता है । पतंजलिने भी कहा है कि "पुरुष यद्यपि खय तो शुद्ध है परंतु बुद्धिके प्रतिबिम्बको चेतनाके द्वारा देखता है । और यद्यपि उससे भिन्न है तो भी उसको देखता हुआ आपेको उससे अभिन्न समझता है ।" यथार्थमें तो वह ज्ञान बुद्धिका ही है। वाचस्पतिने भी यही कहा है "लोकके कार्यों में प्रवर्तनेवाले सभी मनुष्य विचारपूर्वक यह मानने लगते है कि इसमें हमारा अधिकार है, और ऐसा समझकर ही ऐसा निश्चय भी करलेते हैं कि यह हमको करना चाहिये । निश्चय करनेके अनंतर प्रवर्तने लगते है। यह परिपाटी लोगोंके अनुभवसे सिद्ध है"। यहांपर " करना चाहिये" ऐसा जो बुद्धिका निश्चय है वह निश्चय वुद्धिका असाधारण व्यापार है। अर्थात् “ऐसा" यह निश्चय बुद्धिमें ही होता है; अन्यमें नही। परंतु करना चाहिये ऐसा जो बुद्धिका
निश्चय है वह होता तभी है जब चेतनाका प्रतिविव बुद्धिमें पड़ता है। और उसके अनंतर चेतनाका प्रतिबिंवद्वारा संबंध होनेसे IN/ बुद्धिमें चेतनाधर्मका भ्रम होने लगता है। KA चिच्छक्तिसन्निधानाच्चाचेतनापि बुद्धिश्चेतनावतीवाभासते । वादमहार्णवोप्याह "बुद्धिदर्पणसंक्रान्तमर्थप्रति
विम्बकं द्वितीयदर्पणकल्पे पुंस्यऽध्यारोहति । तदेव भोक्तृत्वमस्य न त्वात्मनो विकारापत्तिः” इति । तथा चासुरिः "विविक्तेदृक्परिणतौ बुद्धौ भोगोस्य कथ्यते । प्रतिविम्बोदयः स्वच्छे यथा चन्द्रमसोम्भसि ।१।" विन्ध्यवासी
त्वेवं भोगमाचष्टे "पुरुषोऽविकृतात्मैव स्वनिर्भासमचेतनम् । मनः करोति सान्निध्यादुपाधिः स्फटिकं यथा ।१।" INI बुद्धि खयं अचेतन होकर भी चेतनाशक्तिका संबंध होनेसे ऐसी जान पड़ती है जैसे चैतन्यशक्तिसहित हो । वादमहार्णवने ||
भी इस विषयमें ऐसा कहा है कि "दर्पणके समान इस बुद्धिमें अर्थ प्रतिबिंबित होता हुआ आत्मरूपी दूसरे दर्पणमें प्रतिबिंबित