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अथ वा यैरेकान्तवादिभिर्मिथ्यात्वगरल भोजनमातृप्ति भक्षितं तेषां तत्तद्वचनरूपा उद्गारप्रकाराः प्राक्प्रदर्शिताः। यैस्तु पचेलिमप्राचीनपुण्यप्राग्भारानुगृहीतैर्जगद्गुरुवदनेन्दुनिःस्यन्दि तत्त्वामृतं मनोहत्य पीतं तेषां विपश्चितां यथार्थवादविदुषां हे नाथ इयं पूर्वदलदर्शितोल्लेखशेखरा उद्द्वारपरम्परेति व्याख्येयम् ।
अथवा ऐसा अर्थ करना चाहिये कि जिन एकान्तवादियोंने मिथ्यात्वरूपी विषभोजन तृप्तिपर्यत खाया है उन सबके वचनो द्वारा निकले हुए नाना प्रकारके उद्गार तो पहिले दिखा चुके है परंतु विपाक समयको प्राप्त हुए पूर्ववद्ध कर्मोंके भारसे अनुगृहीत जिन मनुष्योने जगद्गुरु भगवान्के मुखचंद्रसे झरता हुआ वचनरूपी तत्वामृत पीया उन यथार्थ वक्ता विद्वानोंके मुखसे निकली हुई जिसका कि श्लोकके पहिले आधे हिस्सेमें उच्चारण किया है ऐसी यही सर्वोत्कृष्ट उद्गारपरंपरा है ।
एते च चत्वारोऽपि वादास्तेषु तेषु स्थानेषु प्रागेव चर्चिताः । तथा हि । आदीपमाव्योमेति वृत्ते नित्याऽनित्यवादः । अनेकमेकात्मकमिति काव्ये सामान्यविशेषवादः । सप्तभङ्गयामभिलाप्याऽनभिलाप्यवादः सदसद्वादश्च । इति न भूयः प्रयासः । इति काव्यार्थः ।
इन स्यान्नित्य स्यात् अनित्यादि चारो ही वादोको हम यथाप्रसंग दिखाचुके है इसलिये फिरसे दिखानेका प्रयास करना व्यर्थ है । 'आदीपमाव्योम' इत्यादि पांचवें काव्य में तो नित्यानित्यवादका विवेचन है; 'अनेकमेकात्मकम्' इत्यादि चौदहवें काव्यमें दूसरे सामान्यविशेषरूप वादका विचार है और चौवीसवें काव्यकी व्याख्यामें तीसरे वक्तव्यअवक्तव्यखरूपका निरूपण है तथा चौथे अस्तिनास्तिवादका भी प्रतिपादन वहां ही है। इस प्रकार इस काव्यका अर्थ पूर्ण हुआ ।
इदानीं मित्यानित्यपक्षयोः परस्परदूषण प्रकाशनबद्धलक्षतया वैरायमाणयोरितरेतरोदीरितविविधहेतुहेतिसंनिपातसंजातविनिपातयोरयत्नसिद्धप्रतिपक्षप्रतिक्षेपस्य भगवच्छासनसाम्राज्यस्य सर्वोत्कर्षमाह ।
अब यह दिखाते है कि जो सर्वथा नित्य तथा अनित्यपक्ष माननेवाले और परस्पर दोष दिखाना ही है मुख्य कर्तव्य जिन्होंका ऐसे तथा जो एक दूसरेका खंडन करनेकी इच्छासे नानाप्रकारके हेतुवचनरूपी शस्त्रोंका प्रहार करनेसे भूमिपर वैरियोंके समान पड़ते हुए ऐसे जो, हे भगवन् ! आपके वादी है उनका निराकरण आपसके खंडन करनेसे ही बिना प्रयत्न होजाता है इसलिये आपके शासनका वैभव सर्वोत्कृष्ट स्वयमेव हो रहा है।