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________________ का विद्यमान हो तभी अपने कार्यको जनसकता है, जोखुद अपने शरीरसे ही विद्यमान नहीं है वह किसी कार्यको पैदा क्या करेगा? इस लिये यदि पदार्थको ज्ञानका कारण माने तो वे पदार्थ अतीत हों वा आगामी, परंतु सभी विद्यमान मानने पड़ेंगे; कोई भी अतीत तथा आगामी न रहसकैगा। यदि कहों कि प्रकाश होने योग्य पदार्थोंसे उपजना ही ज्ञानका (प्रकाशकका) प्रकाशकपना है परंतु यह कहना भी ठीक नहीं है । क्योंकि; दीपक पदार्थोसे उत्पन्न नही होकर भी उनका प्रकाश करता है । ज्ञान उसीको प्रकाशता है जो उसको पैदा करै ऐसा माननेसे और भी एक दोष आता है । वह यह है कि स्मृति अथवा व्याप्तिज्ञान किसी पदार्थ से उत्पन्न नहीं होते तो भी वे प्रमाण हैं परंतु जनकको प्रकाश करनेवाले ज्ञानको ही प्रमाण माननेवालोके लिये वे अप्रमाण ही रहैगे । स्मृतिज्ञान तो प्रमाण ही नही है ऐसा भी नहीं कहसकते हैं। क्योंकि स्मृति ही अनुमानप्रमाणका प्राण है; जब साध्यसाधनके अवि नाभाव संबंधका स्मरण होजाता है तभी अनुमान होता है; प्रथम नही । | जनकमेव च चेद् ग्राह्यं तदा स्वसंवेदनस्य कथं ग्राहकत्वम् ? तस्य हि ग्राह्यं स्वरूपमेव । न च तेन तजन्यते स्वात्मनि क्रियाविरोधात् । तस्मात्स्वस्वसामग्रीप्रभवयोर्घटप्रदीपयोरिवार्थज्ञानयोः प्रकाश्यप्रकाशकभावसंभवान्न ज्ञाननिमित्तत्वमर्थस्य । नन्वर्थाऽजन्यत्वे ज्ञानस्य कथं प्रतिनियतकर्मव्यवस्था ? तदुत्पत्तितदाकारताभ्यां हि सोपप द्यते । तस्मादनुत्पन्नस्याऽतदाकारस्य च ज्ञानस्य सर्वार्थान् प्रत्यविशेषात्सर्वग्रहणं प्रसज्येत । नैवं तदुत्पत्तिमन्तरेजाणाप्यावरणक्षयोपशमलक्षणया योग्यतयैव प्रतिनियतार्थप्रकाशकत्वोपपत्तेः । तदुत्पत्तावपि च योग्यताऽवश्यमेष्टव्या । अन्यथाऽशेषार्थसांनिध्ये तत्तदर्थाऽसांनिध्येपि कुतश्चिदेवार्थात् कस्यचिदेव ज्ञानस्य जन्मेति कौतस्कुतोऽयं विभागः? ___ यदि जनक पदार्थ ही ज्ञानका विषय होसकता है ऐसा माना जाय तो खानुभवनरूप ज्ञानका विषय कोनसा होगा ? यदि उस Kalज्ञानका खरूप ही उस ज्ञानका विषय माना जाय तो यह नियम टूटता है कि प्रत्येक ज्ञान अपने जनकको ही विषय करता है।। क्योंकि; अपनेसे ही अपनी उत्पत्ति होना संभव नही है । सो भी क्योंकि जब आप स्वयं होचुकै तब अपने उत्पन्न करनेको अपनेमें क्रिया पैदा करसकै और जब वह क्रिया होजाय तब अपनी उत्पत्ति होसकै। इस प्रकार एककी उत्पत्ति दूसरेकी उत्पत्ति होनेकेला आश्रित होनेसे तथा दूसरेकी उत्पत्ति एक पहिलेकी उत्पत्तिके आधीन होनेसे कोई भी क्रिया नहीं होसकती है। और जबतक उत्पन्न ||
SR No.010452
Book TitleRaichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParamshrut Prabhavak Mandal
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1910
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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