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साद्वादमं. ॥१२७॥
ज्ञान उन दोनों वस्तुओंका प्रथम ज्ञान होनेपर ही होसकता है, यदि उनमें से एक वस्तुका ही ज्ञान हो तो उस संबंधी ज्ञान कदापि नही हो सकता " ऐसा पूर्वाचार्योंका वचन है ।
यदपि धर्मोत्तरेण " अर्थसारूप्यमस्य प्रमाणं तद्वशादर्थप्रतीतिसिद्धेः " इति न्यायविन्दुसूत्रं विवृण्वता भणितं “नीलनिर्भासं हि विज्ञानं यतस्तस्मान्नीलस्य प्रतीतिरवसीयते । येभ्यो हि चक्षुरादिभ्यो ज्ञानमुत्पद्यते न तद्वशात्तज्ज्ञानं नीलस्य संवेदनं शक्यतेवस्थापयितुं नीलसदृशं त्वनुभूयमानं नीलस्य संवेदनमवस्थाप्यते । न चात्र जन्यजनकभावनिवन्धनः साध्यसाधनभावो येनैकस्मिन्वस्तुनि विरोधः स्यात् । अपि तु व्यवस्थाप्यव्यवस्थापकभावेन । तत एकस्य वस्तुनः किंचिद्रूपं प्रमाणं किंचिलमाणफलं न विरुध्यते । व्यवस्थापनहेतुर्हि सारूप्यं तस्य ज्ञानस्य व्यवस्थाप्यं च नीलसंवेदनरूपम्" इत्यादि तदप्यसारम्; एकस्य निरंशस्य ज्ञानक्षणस्य व्यवस्थाप्यव्यवस्थापकत्वलक्षणस्वभावद्वयाऽयोगात् व्यवस्थाप्य व्यवस्थापकभावस्यापि च सम्बन्धत्वेन द्विष्ठत्वादेकस्मिन्नसंभवात् ।
और भी - धर्मोत्तर नामक बौद्ध आचार्यने "ज्ञानके आकारके साथ अर्थकी समानता होनेसे ही ज्ञानमें प्रमाणता होती है। क्योंकि ज्ञानमें अर्थकी समानता होनेपर ही अर्थकी प्रतीति होती है" ऐसे अभिप्रायवाले न्यायविन्दु ग्रन्थके सूत्रका विवरण करते हुए “जिसमें नीलरूपका प्रतिभास हो ऐसा विज्ञान जिससे उत्पन्न होताहो उसीसे नीलरूपकी प्रतीतिका निश्चय होता है । और जिन चक्षुरादि इन्द्रियोंके द्वारा नीलादिका ज्ञान उत्पन्न होता है केवल उन इन्द्रियोंके ही वश वह ज्ञान नीलादि संवेदनका निश्चय नहीं करासकता है । और नीलके सदृश अनुभव किया हुआ नीलादिज्ञान ( अर्थके द्वारा ) तो नीलका सवेदन कराता है । भावार्थपदार्थकी समानता रखनेवाला ही ज्ञान पदार्थकी सहायतासे प्रमाण समझा जाता है और इन्द्रियादिककी सहायतासे उत्पन्न होनेपर भी वह ज्ञान इन्द्रियादिकके वशसे प्रमाणरूप नहीं होता। यहांपर जन्यजनकभावका आश्रय लेकर साध्यसाधनपना नही मानागया है जिससे कि एक वस्तु ( एक समय में ) परस्पर विरोध संभव हो । भावार्थ-यदि जन्यजनकभावकी अपेक्षा लेकर साध्यसा - धनपना यहां मानाजाता तो एक वस्तुमें साध्यसाधनपनेका विरोध आता । क्योंकि; एक समयमें एक वस्तु या तो साध्यरूप ही हो सकती है या साघनरूप ही । दोनोंरूप नहीं होसकती । इसीलिये हमने जन्यजनकभावकी अपेक्षा साध्यसाधनभाव यहां नहीं माना
१ बौद्धोंके एक न्यायप्रन्थका नाम न्यायबिन्दु है । २ " अर्थसारूप्यमस्य प्रमाण तद्वशादर्थप्रतीतिसिद्धे " ऐसा न्यायबिन्दुका सूत्र है ।
रा. जै.शा.
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