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राजै.शा,
जाद्वादमाधर्मीका लक्षणपरिणाम २ है। अर्थात् जब यह सुवर्णकार ( सोनी) वर्द्धमानको तोडकर रुचक बनाता है, तब वर्द्धमान वर्त-
मानता ( विद्यमानपने रूप) लक्षणको त्याग कर अतीतता (हो चुकनेरूप) लक्षणको प्राप्त होता है । और रुचक अनागतता ॥ १७॥ होनेवाले रूप ) लक्षणको छोड़कर, वर्तमानता लक्षणको ग्रहण करता है । और वर्तमानताको प्राप्त जो रुचक है, वही नयेपनेको
तथा पुराणेपनेको धारण करता हुआ धर्मीके अवस्थापरिणामवाला होता है । वह जो यह तीन प्रकारका परिणाम है, सो धर्मीका है। और धर्म, लक्षण, तथा अवस्था ये तीनो धमीसे भिन्न भी है तथा अभिन्न भी है । तथा वे धर्म लक्षण और अवस्थारूप परिणाम धर्मीसे अभिन्न है, इस कारण धर्माकी-नित्यतासे नित्य है। और धर्मीसे भिन्न होनेके कारण उत्पत्ति तथा विनाशके विषय है । अर्थात् अनित्य है । भावार्थ-साख्यमतवाले पदार्थके पर्यायोंको धर्म मानते है । पर्यायोमे जो कालका परिवर्तन है, उसको लक्षण कहते है। और वर्तमानपर्यायमे जो नया पुराणापन होता है, उसको अवस्था कहते है। ये तीनो किसी अपेक्षासे पदार्थसे अभिन्न होनेके कारण नित्य है । और किसी अपेक्षासे पदार्थसे भिन्न है, इसलिये अनित्य है । इस प्रकार पदार्थमें नित्य | तथा अनित्य ये दोनों धर्म सिद्ध होते है ।
___ अथोत्तरार्द्ध विवियते । एवं चोत्पादव्ययध्रौव्यात्मकत्वे सर्वभावानां सिद्धेऽपि तद्वस्तु एकमाकाशात्मादिकं नित्यमेव, अन्यच्च प्रदीपघटादिकमनित्यमेव । इत्येवकारोऽत्रापि सम्बध्यते । इत्थं हि दुर्नयवादापत्तिः। अनन्तधात्मके वस्तुनि स्वाभिप्रेतनित्यत्वादिधर्मसमर्थनप्रवणाः शेषधर्मतिरस्कारेण प्रवर्तमाना दुर्नया इति तल्लणात् । इत्यनेनोल्लेखेन त्वदाज्ञाद्विषतां भवत्प्रणीतशासनविरोधिनां प्रलापाःप्रलपितान्यसम्बद्धवाक्यानीति यावत्।
अब काव्यके उत्तरार्धकी व्याख्या करते है। इस पूर्वोक्त प्रकारसे सब पदार्थोके उत्पाद विनाश और ध्रौव्य स्वरूपता सिद्ध होने पर भी 'तत' वह 'एक' आकाश, आत्मा आदि एक प्रकारके पदार्थ 'नित्यं नित्य 'एव' ही है । और 'अन्यत' दीपक, घट आदि दूसरे पदार्थ 'अनित्यं' अनित्य 'एव' ही है। [यहां नित्यके साथ जो 'एव पद लगाया गया है, वह अनित्यके साथ
निश्शेषाशजपा प्रमाणविषयीभूय समासेदुपा वस्तूना नियताशकल्पनपरा. सप्त श्रुताः सङ्गिन । औदासीन्यपरायणास्तदपरे चांशे भवेयुर्नयाश्रेदेकाशकलरूपककलुपास्ते स्यु सदा दुर्णया । ।। इति नयदुर्जययोर्लक्षणम् । २ बवकक्षा. ३ प्रकारेण ।
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