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________________ ज्ञान भी आत्मामें समवेत है और वह ज्ञान क्षणिक है; अतः ज्ञानका नाश होनेपर उस ज्ञानके आधारभूत आत्माका भी नाश हो जानेसे आत्माके अनित्यताकी प्राप्ति होगी अर्थात् तुह्मारा नित्य आत्मा अनित्य हो जावेगा। अथास्तु समवायेन ज्ञानात्मनोः सम्बन्धः किन्तु स एव समवायः केन तयोः संवध्यते । समवायान्तरेण चेदN||नवस्था । स्वेनैव चेकिं न ज्ञानात्मनोरपि तथा । अथ यथा प्रदीपस्तत्स्वाभाव्यादात्मानं परं च प्रकाशयति | तथा समवायस्येहगेव स्वभावो यदात्मानं ज्ञानात्मानौ च सम्बन्धयतीति चेत्-ज्ञानात्मनोरपि किं न तथास्वभाव|ता येन स्वयमेवैतौ संवध्यते । किञ्च प्रदीपदृष्टान्तोऽपि भवत्पक्षे न जाघटीति । यतः प्रदीपस्तावद्रव्यं, प्रकाशश्च तस्य धर्मः, धर्मधर्मिणोश्च त्वयात्यन्तं भेदोऽभ्युपगम्यते । तत्कथं प्रदीपस्य प्रकाशात्मकता । तदभावे च स्वपरप्र काशकस्वभावताभणितिनिर्मूलैव। ME अथवा कदाचित् ज्ञान और आत्मा, इन दोनोंके समवायसे संबंध रहै; तो भी हम प्रश्न करते है कि,—वही समवाय ज्ञान तथा आत्मा इन दोनोंमें किससे संबंधित किया जाता है अर्थात् जैसे आत्मामें ज्ञान समवायसंबंधसे समवेत है; उसी प्रकार; उन || दोनोंमें समवाय किससे सबंधित है ? । यदि कहो कि;-ज्ञान और आत्माको संबंधित करनेवाला समवाय उन दोनोंमें दूसरे समवायसे संबंधको प्राप्त होता है, तब तो अनवस्था दोष आता है। और यदि कहो कि;-समवाय वयं ( अपने आप ) ही ज्ञान और आत्मामें संबंधित होता है; तो ज्ञान और आत्मा इन दोनोंके भी स्वयं संबंधित होना क्यों नहीं है अर्थात जै और आत्मामें खयं संबधको प्राप्त होता है; उसी प्रकार ज्ञान तथा आत्मा ये दोनों भी खय ही परस्पर संबधित क्यों नहीं होते है? । भावार्थ-ज्ञान और आत्मा समवायसे संबंधित होते है ऐसा माननेमें कोई नियामक नहीं है; अतः जैसे तुम समवायका ज्ञान तथा आत्मामें खतः संबंध मानते हो; उसी प्रकार ज्ञान और आत्माकेभी खतः संबंध ही मान लो समवायसे संबंध मानना व्यर्थ है । अब कदाचित् ऐसा कहो कि;-जैसे दीपक उसके खभावसे आत्माको और परको प्रकाशित करता है, अर्थात् दीपक अपने लाखभावसे आपको भी प्रकाशित करता है और घट पट आदि पर पदार्थों को भी प्रकाशित करता है, इसीप्रकार समवायका भी ऐसा || ही खभाव है कि;-वह आपको और ज्ञान तथा आत्मा, इन दोनोंको संबंधित करता है अर्थात् समवाय अपने स्वभावसे ज्ञान | और आत्माको भी परस्पर संबधित करता है और आप खयं भी उनमें संबंधित हो जाता है; तो ज्ञान और आत्मा; इन दोनोंके
SR No.010452
Book TitleRaichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParamshrut Prabhavak Mandal
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1910
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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