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हो । इसकारण मूल्से भी गये वीते हो। और 'यहां यह है ' इस इहप्रत्ययसे ही समवायको सिद्ध करोगे तो इस भूतलमें |
घटका अभाव है, यहां भी समवाय मानना पड़ेगा । और यह तुमको इष्ट नहीं है। "अपि च" और भी दोष यह है कि [यहां नाअपिच यह शब्द दूषणोंके समूहको दिखलाने वाले अर्थका धारक है । ] " लोकवाधः" लोकसे अर्थात् प्रामाणिक ( न्यायके |
जाननेवाले ) जन है, उनसे और जो सामान्यपुरुष है, उनसे भी विरोध होगा। क्योंकि तुम उनकी प्रतीतिमें नहीं आनेवाला || ला ऐसा जो व्यवहार है, उसको सिद्ध करते हो । [ यहां पर बाधशब्द पुल्लिंग है। क्योंकि — ईहाद्याः प्रत्ययभेदतः' इस सूत्रसे || All बाध शब्द पुलिग और स्त्रीलिंग, इन दोनोंमें ही होता है । ] इस कारण धर्म और धर्मीके अविष्वग्भावलक्षणका धारक अर्थात् तादा-I| म्यरूप ही संबंध मानना चाहिये । और समवायसे संबंध न मानना चाहिये । भावार्थ-धर्म और धर्मीके परस्पर समवायसे | संबंध होता है, ऐसा माननेमें पूर्वोक्त प्रकारोंसे अनेक दोष आते है, इस कारण धर्म और धर्मी; इन दोनोंके तादात्म्यसंबंध है। || अर्थात् धर्म और धर्मी अभिन्न है । यह ही स्वीकार करना चाहिये । इसप्रकार काव्यका अर्थ है ॥ ७॥ KM अथ सत्ताभिधानं पदार्थान्तरमात्मनश्च व्यतिरिक्तं ज्ञानाख्यं गुणमात्मविशेषगुणोच्छेदस्वरूपां च मुक्तिमज्ञा| नादङ्गीकृतवतः परानुपहसन्नाह ।
अब सत्तानामक एक भिन्न पदार्थको, आत्मासे भिन्न ज्ञाननामक गुणको तथा आत्माके विशेषगुणोंका नाश होनेरूप मोक्षको | अज्ञानसे माननेवाले वैशेषिकोंका हास्य करते हुए शास्त्रकार इस अग्रिम काव्यका कथन करते है।
सतामपि स्यात् क्वचिदेव सत्ता चैतन्यमौपाधिकमात्मनोऽन्यत्।
न संविदानन्दमयी च मुक्तिः सुसूत्रमासूत्रितमत्वदीयैः॥८॥ | काव्यभावार्थः-हे नाथ ! जो सत् पदार्थ हैं; उनमें भी किसी किसीमें सत्ता है. अर्थात् सब। सत्पदार्थों में सत्ता नहीं है १ ज्ञान उपाधि जनित है, इसकारण आत्मासे भिन्न है २ और मोक्ष जो|
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