________________
हुए में विशेषता जनानेके अर्थमें निपात है ] 'एकम् ' एक ही ' यथार्थवादम् ' ' वस्तुके यथास्थित स्वरूपको कहनेवाला ' | इस नामका धारक जो आपका गुण है उसीको यह मनुष्य ' विगाहतां ' स्तुतिरूप क्रियासे सर्वत: व्याप्त करो । क्योंकि, उस यथार्थवादित्वनामक एक ही गुणका वर्णन किये जानेपर अन्यमतके देवोसे विशिष्टताका कथन हो जायगा । जिसके कि द्वारा वास्तवमें सपूर्ण गुणोंके स्तोत्रकी सिद्धि हो जावैगी ॥
1
अथ प्रस्तुत गुणस्तुतिः सम्यक्परीक्षाक्षमाणां दिव्यदृशमेवौचितीमञ्चति नाडर्वाग्दृशीं भवादृशामित्याशङ्कां | विशेषणद्वारेण निराकरोति । यतोऽयं जनः परीक्षाविधिदुर्विदग्धः अधिकृतगुणविशेषपरीक्षणविधौ दुर्विदग्धः पण्डितंमन्य इति यावत् । अयमाशयो यद्यपि जगद्गुरोर्यथार्थवादित्वगुणपरीक्षणं मादृशां मतेरगोचरस्तथा| पि भक्तिश्रद्धातिशयात् तस्यामहमात्मानं विदग्धमिव मन्य इति । विशुद्धश्रद्धाभक्तिव्यक्तिमात्रस्वरूपत्वात्स्तुतेः । इति वृत्तार्थः ॥ २ ॥
अब ‘यथार्थवादित्व नामक जो गुण है, उसकी स्तुति करना उत्तमरीतिसे परीक्षा करने में समर्थ जो दिव्यज्ञानके धारक मुनीश्वर है, उनके ही योग्य है और तुम जैसे छद्मस्थोंके, उस गुणकी स्तुति करनेकी योग्यता नहीं है।' इसप्रकार जो किसीकी आशंका है, | उसको विशेषणद्वारा दूर करते हुए आचार्य कहते है । क्योंकि, यह मै ( हेमचन्द्र ) ' परीक्षा विधिदुर्विदग्धः ' इस यथार्थवादित्वनामक गुणकी परीक्षा करनेमें दुर्विदग्ध हू अर्थात् अपनेको पंडित मानता हूं । भावार्थ - यह है कि, यद्यपि तीनजगत् के गुरु श्रीजिनेन्द्रके यथार्थवादित्व गुणकी परीक्षा करना मेरे जैसोंकी बुद्धिका विषय नही है, तथापि भक्ति और श्रद्धाके प्रभावसे उस परीक्षा करनेमें मै मुझको चतुरकी समान मानता हूं। क्योंकि, निर्मल श्रद्धा और भक्तिकी जो प्रकटता है, वही स्तुतिका खरूप है । | इसप्रकार दूसरे काव्यका अर्थ है ॥ २ ॥
अथ ये कुतीर्थ्याः कुशास्त्र वासनावासितस्वान्ततया त्रिभुवनस्वामिनं स्वामित्वेन न प्रतिपन्नास्तानपि तत्त्ववि - चारणां प्रति शिक्षयन्नाह ।
१] अतीन्द्रियज्ञानिनां । २ योग्यतां । ३ छद्मस्थानां ।