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NI किं च स्वागमोपदेशेनैव तेन वादिना शून्यवादः प्ररूप्यते इति स्वीकृतमागमस्य प्रामाण्यमिति कुतस्तस्य स्वप-IN ताक्षसिद्धिः? प्रमाणाङ्गीकरणात् । किं च प्रमाणं प्रमेयं विना न भवतीति प्रमाणाऽनङ्गीकरणे प्रमेयमपि विशीर्णम् ।
ततश्चास्य मूकतैव युक्ता न पुनः शून्यवादोपन्यासाय तुण्डताण्डवाडम्बरं; शून्यवादस्यापि प्रमेयत्वात् । अत्र च स्पृशिधातुं कृतान्तशब्दं च प्रयुञ्जानस्य सूरेरयमभिप्रायः। यद्यसौ शून्यवादी दूरे प्रमाणस्य सर्वथाङ्गीकारो यावप्रमाणस्पर्शमात्रमपि विधत्ते तदा तस्मै कृतान्तो यमराजः कुप्येत् । तत्कोपो हि मरणफलः । ततश्च स्वसिद्धान्तविरुद्धमसौ प्रमाणयन्निग्रहस्थानापन्नत्वान्मृत एवेति । सा और भी एक दोष यह है कि शून्यवादी जो शून्यवादका उपदेश करता है वह अपने आगमके कथनानुसार ही करता है
इसलिये उसने अपने आगममें तो सत्यता खीकार कर ही ली तो फिर सर्वथा शून्यपना किस प्रकार सिद्ध होसकता है? क्योंकि एक आगमकी प्रमाणता तो वह स्वयं स्वीकार करचुका । और भी एक दूसरा दोष यह है कि प्रमाणकी सिद्धि प्रमेयके विना नही होसकती है इसलिये यदि शून्यवादी प्रमाणको नही माने तो प्रमेय पदार्थ भी सिद्ध नही हो सक यदि प्रमेय कुछ हैं ही नही तो शून्यवादकी सिद्धि करनेकेलिये अधिक प्रलाप करना भी वृथा है किंतु मौन ही धारण करना चाहिये । क्योंकि शून्यवाद भी एक प्रकारका प्रमेय है। भावार्थ-जब शून्यवादी ऐसा कहचुका है कि प्रमेयमात्र कुछ वस्तु नही है तो शून्यवादकी सिद्धि भी क्यों करनी चाहिये । यहांपर 'स्पृश' धातुके तथा 'कृतान्त' ( यमराज ) शब्दके लिखनेसे आचार्यका यह अभिप्राय है कि प्रमाणका खीकार करना तो दूर ही रहा किंतु यदि यह शून्यवादी प्रमाणका स्पर्शमात्र भी करैगा तो इसके ऊपर यमराज कोप करने लगेगा। भावार्थ-कृतान्त शब्दके अर्थ दो हैं प्रथम यमराज दूसरा सिद्धान्त अथवा मत ।। ऐसे दो अर्थवाले शब्दोके लिखनेसे कारिकाके अर्थकी दूसरी ध्वनि भी निकल सकती है । वह ध्वनि यही है कि जिस प्रकार यमराजका कोप होनेसे जीवकी मृत्यु हो जाती है उसी प्रकार यहां भी वह अपने शून्यवादसिद्धान्तके विरुद्ध जो प्रमाणोंको खीकार करता है उससे वह निग्रह स्थानमें पतित हुआ समझा जाता है। अर्थात् वह अपने शून्यवादमय मतके विरुद्ध प्रमाणरूप एक पदार्थकी सत्ताका खीकार करनेसे अपने सिद्धांतसे पतित समझा जाता है। अपने वचनपर स्थिर रहना ही तो प्रामाणिकका जीना है और उससे च्युत हो जाना ही उसका मरण समझना चाहिये।