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________________ स्याद्वादम. राज ॥१६॥ र्णवमेवावलोकयंस्तटमदृष्दैव निर्वेदाव्यावृत्य तदेव कृपस्तम्भादिस्थानमाश्रयते; गत्यन्तराऽभावात् । एवं तेऽपि कुर्ती र्थ्याः प्रागुक्तपक्षत्रयेऽपि वस्तुसिद्धिमनासादयन्तस्त्वदुक्तमेव चतुर्थ भेदाऽभेदपक्षमनिच्छयापि कक्षीकुर्वाणास्त्वच्छासनमेव प्रतिपद्यन्ताम् । नहि स्वस्य बलविकलतामाकलय्य बलीयसः प्रभोः शरणाश्रयणं दोपपोपाय नीतिशालिनाम्। त्वदुक्तानीति वहुवचनं सर्वेषामपि तन्त्रान्तरीयाणां पदे पदेऽनेकान्तवादप्रतिपत्तिरेव यथाऽवस्थितपदार्थप्रतिपादनौपयिकं नान्यदिति ज्ञापनार्थम्, अनन्तधर्मात्मकस्य सर्वस्य वस्तुनः सर्वनयात्मकेन स्याद्वादेन विना यथावद् ग्रहीतुमशक्यत्वात् ; इतरथाऽन्धगजन्यायेन पल्लवग्राहिताप्रसङ्गात् । | अब वांकी रहे हुए आधे श्लोकका व्याख्यान करते है। इससे अर्थात् पक्षत्रयमें दोप होनेसे अन्य कुत्सित धोंके प्रवर्तकोंको भी आपके दिखाये हुए कथचित् भेदाभेदरूप स्याद्वादवचनोंका ही आश्रय लेना चाहिये। यहांपर अन्य कुत्सित धर्मोके प्रवर्तकोंको ऐसा सामान्य शब्द होनेपर भी प्रकरणके वशसे बुद्धमतावलंबी ही समझना चाहिये । अर्थात्-बौद्धादिकोंके वचन सर्वथा भेदरूप अथवा अभेदरूप अथवा अनुभयरूप ही है इसलिये उन वचनोमें नाना प्रकारके दोष सभव हैं और आपके वचन कथचित् भेदाॐ भेदरूप स्याद्वादगर्भित होनेसे किसी प्रकार भी दूपित नही है इसलिये परवादियोको झख मारकर अंतमें आपके ही वचन स्वीकार | करने पड़ते है । अब यहांपर अख मारकर अंतमें आपके ही वचन किस प्रकार स्वीकार करने पड़ते है इस वातको 'तटादर्शि' के इत्यादि कहकर दृष्टांत द्वारा समझाते है । समुद्रके किनारेसे बहुत दूर पहुच जानेसे जिस पक्षीके बच्चेको किनारा नहीं दीखता हो उसको तटादर्शि शकुंतपोत कहते है । उसीका यहापर दृष्टात है । किसी पक्षीका बच्चा जहाजके मस्तूलपर वेठा रहकर किसी प्रकार अथाह तथा विशाल समुद्र के बीच में पहुचजानेपर बाहिर निकलनेकी इच्छासे किनारेपर आनेके लिये मूर्खताके कारण जहाजके 4 मस्तूलसे जब उड़जाता है और चारो तरफ जल ही जल देखता है किंतु किनारा किधर भी नही दीखता है तब जिस प्रकार पुरुषार्थहीन होकर फिरसे लौटकर उसी मस्तूलका सहारा लेता है। क्योंकि वहां दूसरा कोई शरण ही नही है । उसी प्रकार कुत्सित मतोंके प्रवर्तक बौद्धादिक भी जब पूर्वोक्त भेदादि तीनो पक्षोमेंसे किसी पक्षसे भी वस्तुसिद्धि नही करसकते है तब जिस कथंचित् भेदाभेदरूप चौथे पक्षका आपने उपदेश किया है उसीका आश्रय नही चाहते हुए भी झख मारकर लेते हुए आपके मतका सहारा लेते हैं । अपने बलकी हीनता देखकर अपनेसे अधिक बलवान् खामीका शरण लेना कुछ भी नीतिविरुद्ध पक्षस भी वस्तुसिटि ॥१६ १ पदश किया है उसी ते हैं। अपने
SR No.010452
Book TitleRaichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParamshrut Prabhavak Mandal
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1910
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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