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खाद्वादम.
॥६८॥
खंडित अवयवमें विद्यमान आत्मप्रदेशोंका शरीरस्थ आत्मप्रदेशोंमें प्रवेश न मानना चाहिये किन्तु उस खंडित अवयवमें दूसरा राजै.शा. से ही आत्मा मान लेना चाहिये । तो यह कहना ठीक नहीं है। क्योंकि यदि एक शरीरमें अनेक आत्मा मानेंगे तो अनेक रूप रस
आदि पदार्थोंका प्रतिभास ( निश्चय ) करानेवाले जो नेत्रइंद्रिय आदिसे उत्पन्न ज्ञान हैं, उनके एक प्रमाता ( ज्ञाता आत्मा ) की । आधारतासे प्रतिभास ( अनुव्यवसाय ) न होनेका प्रसंग होगा । जैसे कि,-दूसरे शरीरोंमें विद्यमान अनेकज्ञानोंसे जाननेयोग्य जो रूप आदि पदार्थ है, उनके ज्ञानका एक आत्मामें प्रतिभास नहीं होता है । भावार्थ-जैसे देवदत्तकी आत्माका ज्ञान जिस रूप आदि पदार्थको देखता है, उसका 'मैं देखता हूं अतः ज्ञानवान हू' इस प्रकारका अनुव्यवसाय देवदत्तके आत्माको ही होता है। जिनदत्तके आत्मा को नहीं होता है । उसी प्रकार एक शरीरमें अनेक आत्मा माननेपर गरीरके नेत्ररूप अवयवमें स्थित आत्मा
जिस रूपको देखेगा, उसका अनुव्यवसाय उस जिनदत्तके नेत्रस्थ आत्माको ही होगा और उस जिनदत्तके कर्णरूप शरीरावयवमें * जो आत्मा स्थित है, उसके 'मैं देखता हूं' ऐसा अनुव्यवसाय नहीं होगा। और ऐसा होगा तो प्रत्येक आत्माके जो 'मै देखता हू, 2 मै सुनता हूं, मैं सूंघता हूं, इत्यादिरूप से एक प्रमाता ( जाननेवाले ) को अवलंबन करके प्रतिभास होता है, वह न होगा । * और इस एक प्रमाताके आधाररूपसे प्रतिभासका न होना तुमको अनिष्ट है।
कथं खण्डितावयवयोः संघट्टनं पश्चादिति चेत् एकान्तेन छेदाऽनभ्युपगमात् । पद्मनालतन्तुवच्छेदस्यापि स्वीकारात् । तथाभूतादृष्टवशात्तत्संघट्टनमविरुद्धमेवेति तनुपरिमाण एवात्माङ्गीकर्तव्यो न व्यापकः । तथा च आत्मा व्यापको न भवति चेतनत्वात् । यत्तु व्यापकं न तच्चेतनम् । यथा व्योम । चेतनश्चात्मा । तस्मान्न व्यापकः।
अव्यापकत्वे चास्य तत्रैवोपलभ्यमानगुणत्वेन सिद्धा कायप्रमाणता। यत्पुनरप्टसमयसाध्यकेवलिसमुद्घातदशायामा* हेतानामपि चतुर्दशरज्वात्मकलोकव्यापित्वेनात्मनः सर्वव्यापकत्वम् । तत्कादाचित्कम् । इति न तेन व्यभिचारः।
स्याद्वादमन्त्रकवचावगुण्ठितानां च नेदृशविभीपिकाभ्यो भयम् । इति काव्यार्थः॥९॥ ___ यदि कहो कि आत्माके खंडित अवयवों (प्रदेशों) का पीछे मेल कैसे हो जाता है अर्थात् जो आत्माके प्रदेश कट कर शरीरके
खडित अवयवोंमें चले गये है, वे और जो आत्माके प्रदेश शरीरमें विद्यमान हैं वे, ये दोनो पीछे परस्पर कैसे मिल जाते है, तो ॐ उत्तर यह है कि, हमने उन आत्माके प्रदेशोंका छेद (विभाग ) सर्वथा नहीं माना है। और जो छेद माना है, उसको भी कम