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नैकान्तवादे सुखदुःखभोगौ न पुण्यपापे न च बन्धमोक्षौ ।
दुर्नीतिवादव्यसनासिनैवं परैर्विलुप्तं जगदप्यशेषम् ॥ २७ ॥
मूलार्थ – एकान्तपक्षोंके माननेसे न तो सुख दुःखका भोगना ही बनसकता है और न पुण्य पाप तथा बन्धन मोक्ष ही बनसकते है । इसलिये खोटे युक्तिवादमें जो रुचि है वह खनके समान है और उस खझसे इन शत्रुओंने जगत्का नाश कररक्खा है ।
व्याख्या - एकान्तवादे नित्याऽनित्यैकान्तपक्षाभ्युपगमे न सुखदुःखभोगौ घटेते, न च पुण्यपापे घटेते न चवन्धमोक्षौ घटेते । पुनः पुनर्नञः प्रयोगोऽत्यन्ताऽघटमानतादर्शनार्थः । तथा हि । एकान्तनित्ये आत्मनि तावत् सुखदुःखभोगौ नोपपद्येते । नित्यस्य हि लक्षणमप्रच्युताऽनुत्पन्न स्थिरैकरूपत्वम् । ततो यदात्मा सुखमनुभूय स्वकारणकलापसामग्रीवशाद्दुःखमुपभुङ्क्ते तदा स्वभावभेदादनित्यत्वापत्त्या स्थिरैकरूपताहानिप्रसङ्गः । एवं दुःखमनुभूय सुखमुपभुञ्जानस्यापि वक्तव्यम् ।
व्याख्यार्थ – नित्य अनित्य आदिक एकांत पक्षोंके स्वीकार करनेसे सुखदुःखों का भोगना सिद्ध नही होसकता है; तथा पुण्य पाप नहीं सिद्ध होसकते है और वन्ध मोक्ष भी संगत नहीं होसकते है । श्लोकमें यद्यपि एकवार 'न' लिखनेसे ही काम चलसकता था परंतु तो भी जो तीनवार 'न' लिखा है उससे अत्यंत असंगतपना दिखाया है। अर्थात् ऐसा जताया है कि एकान्तपक्ष माननेसे किसी प्रकार भी बन्धमोक्षादि संभव नहीं होसकते है । यदि सर्वथा नित्यता ही मानी जाय; किसी प्रकारका भी उत्पत्ति | विनाश न मानाजाय तो आत्मामें सुख दुःखका होना ही असंभव है । क्योंकि; सर्वथा नित्य उसको कहते है जो किसी प्रकार भी अपने प्राचीन परिणामोंको नही छोड़े तथा नवीन परिणामोंका ग्रहण नहीं करै । सो यदि सुख दुःखोंकी उत्पत्ति आत्मामें मानोगे तो जब आत्मा किसी कारणसे उत्पन्न हुए सुखका अनुभव करके किसी कारणवश उत्पन्न हुए दुःखका अनुभव करने लगेगा तभी स्वभावमें भेद पड़नेसे अनित्यता आखड़ी होगी और स्थिर एकरूप रहनेवाली नित्यता नही रहसकेगी । इसीप्रकार जब | दुःखरूप परिणामोंको छोड़कर सुखका अनुभव करेगा तब भी स्वभावका परिवर्तन होनेसे नित्यता नही रहसकैगी किंतु अनित्यता आखड़ी होगी ।