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तो है परंतु शब्द अपने वाच्य अर्थका स्पर्शमात्र भी नहीं करते है।" यह कथन भी खण्डित होता है, क्योंकि; “पदार्थ, शब्द (उस पदार्थका वाचक) तथा ज्ञान ये तीनो ही समानसंज्ञावाले होते है" एसा पूर्वाचार्योंका वचन है । शब्दका यही तत्त्व (प्रयोजन= शब्दपना ) है कि अपने वाच्य अर्थका यथार्थरूपसे प्रतिपादन करै । और वह ( शब्द ) अपने वाच्यका यथार्थपनेसे प्रतिपादन करता हुआ अपने वाच्यखरूपमय होकर ही प्रतिपादन करसकता है, अन्य प्रकार नही । यदि अन्यथा प्रकार भी करसकै तो अमुक शब्दका यही अर्थ है ऐसा कोई निश्चायक न होनेसे "घट" शब्दसे "पट" पदार्थका भी ज्ञान क्यों न हो ? (क्योंकि ऐसा होनेपर इस दोषका कोई व्यावर्तक नहीं है)। __ अथवा भङ्ग यन्तरेण सकलं काव्यमिदं व्याख्यायते । वाच्यं वस्तु घटादिकमेकात्मकमेव (एकरूपमैपि) सदनेकम् । (अनेकस्वरूपम्)। अयमर्थः।-प्रमाता तावत् प्रमेयस्वरूपं लक्षणेन निश्चिनोति । तच्च सजातीयविजातीयव्यवच्छेदादात्मलाभं लभते । यथा घटस्य सजातीया मृन्मयपदार्था विजातीयाश्च पटादयः । तेषां व्यवच्छेदस्तल्लक्षणम् । पृथुबुध्नोदराद्याकारः कम्बुग्रीवो जलधारणाहरणादिक्रियासमर्थः पदार्थविशेषो घट इत्युच्यते । तेषां च सजातीयविजातीयानां स्वरूपं तत्र बुद्ध्या आरोग्य व्यवच्छिद्यते; अन्यथा प्रतिनियततत्स्वरूपपरिच्छेदानुपपत्तेः। ॥ अथवा इस समग्र काव्यका व्याख्यान दूसरे प्रकारसे करते है । वाच्य अर्थात् घटादिक पदार्थ एकात्मक भी अर्थात् एकरूप होकर भी अनेक सत्तावाले अर्थात् अनेकरूप है । इसका यह ( नीचे लिखे अनुसार ) अभिप्राय है कि प्रमाता (निश्चयकर्ता) लक्षणसे प्रमेयका खरूप निश्चित करता है । और यह निश्चय सजातीय तथा विजातीय वस्तुओंका निराकरण (व्यावृत्ति) करनेपर ही होसकता है । जैसे मट्टीसे वने हुए पदार्थ घड़ेके समानजातीय हैं और वस्त्रादिक विजातीय है । इन सवको जुदे करनेका नाम ही| उस पदार्थका लक्षण है । स्थूल तथा मोटे पेटवाला शंखसमान ग्रीवावाला जल धरने तथा लाने आदिक प्रयोजनमें समर्थ जो कोई वस्तु उसको घड़ा कहते हैं । इस घड़ामें इसके सजातीय मट्टीके पदार्थ तथा विजातीय वस्त्रादिक पदार्थोंके स्वरूपका कल्पनामात्रसे आरोपण कर निराकरण किया जाता है। यदि घड़ासे भिन्न सजातीय तथा विजातीय वस्तुओंका निराकरण न किया जाय तो प्रत्येक पदार्थकी " यह यही है अन्य नही" ऐसी नियमित व्यवस्था ही न होसकै। १=एकरूपमेव इति पाठान्तरम् ।