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________________ । भविष्यत् विषयोंको सत्य जतानेवाले ज्योतिष्क शासको जानता है वह ग्रहण पड़नेके पहिले ही कह देता है कि अमुक समय ग्रहण पड़ेगा । और वह कहना सत्य होता है। ऐसे शास्त्रोंको वही बना सकता है जो खय सर्वज्ञ हो । इत्यादि हेतुओंसे भी सर्वज्ञज्ञानका होना प्रमाणसिद्ध है । जिस जीवमें ऐसा केवलज्ञान होगया हो उसकर बनाये हुए शास्त्र किसी प्रकार भी अप्रमाण नहीं होसकते है । शास्त्र वे ही अप्रमाण होते है जिनके बनानेवाले स्वयं निर्दोष न हों । कहा भी है कि "रागके द्वेषके अथवा मोहके वश होजानेपर वचन झूठ बोला जाता है। जिसमें ये दोप ही नहीं रहे वह असत्य किस प्रकार बोल | ॐ सकता है?" । हमने यह तो पहिले ही कहा था कि हमारे शास्त्रोके बनानेवालोमें कर्मों के नाश हो जानेसे दोष सर्वथा नष्ट हो| चुके है । ऐसे निर्दोष हमारे शास्त्रोंमें “आत्मा अकेला है" इत्यादि वचनोके मिलनेसे आगमप्रमाणसे भी जीवद्रव्य सिद्ध है। तदेवं प्रत्यक्षानुमानागमैः सिद्धः प्रमाता । प्रमेयं चानन्तरमेव वाह्यार्थसाधने साधितम् । तत्सिद्धौ च 'प्रमाणं | y ज्ञानं तच्च प्रमेयाभावे कस्य ग्राहकमस्तु निर्विषयत्वात्' इति प्रलापमानं; करणमन्तरेण क्रियासिद्धेरयोगाल्लवना दिषु तथा दर्शनात् । यच्चार्थसमकालमित्याद्युक्तं तत्र विकल्पद्वयमपि स्वीक्रियत एव । अस्मदादिप्रत्यक्षं हि सम, कालार्थाकलनकुशलं स्मरणमतीतार्थस्य ग्राहकं शब्दानुमाने च त्रैकालिकस्याप्यर्थस्य परिच्छेदके । निराकारं || चैतद्वयमपि । न चातिप्रसङ्गः स्वज्ञानावरणवीर्यान्तरायक्षयोपशमविशेषवशादेवास्य नैयत्येन प्रवृत्तेः। शेषविकल्पानामस्वीकार एव तिरस्कारः। प्रमितिस्तु प्रमाणस्य फलं स्वसंवेदनसिद्धैव । न ह्यनुभवेऽप्युपदेशापेक्षा । फलं ) च द्विधानन्तर्यपारम्पर्यभेदात् । तत्रानन्तर्येण सर्वप्रमाणानामज्ञाननिवृत्तिः फलम् । पारम्पर्येण केवलज्ञानस्य तावत् * फलमौदासीन्यं शेषप्रमाणानां तु हानोपादानोपेक्षाबुद्धयः। इति सुव्यवस्थितं प्रमात्रादिचतुष्टयम् । ततश्च "नासन्न सन्न सदसन्न चाप्यनुभयात्मकम् । चतुष्कोटिविनिर्मुक्तं तत्त्वमाध्यात्मिका विदुः" इत्युन्मत्तभापितम् । इस प्रकार प्रत्यक्ष, अनुमान तथा आगम इन तीनो प्रमाणोसे प्रमाताका (आत्माका) होना सिद्ध है । जिन बाह्य विषयोंको | ज्ञान जानता है उनका होना तो अभी पहिले सिद्ध कर चुके है। इसलिये यह कहना केवल निर्हेतुक बकना है कि जब वाह्य | पदार्थ ही कोई चीज नही है तो जो प्रमाणज्ञान है वह किसको जानै ? जितनी क्रिया होती है वे किसी न किसी करणके विना नहीं होसकती। जैसे वृक्षका काटना किसी कुल्हाड़ीसे ही हो सकता है। जबतक कुल्हाड़ी न हो तबतक वृक्ष कट नहीं सकता है।
SR No.010452
Book TitleRaichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParamshrut Prabhavak Mandal
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1910
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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