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एक प्रदेशमें विभाग और दूसरेमें संयोग होता है । और संयोग तथा विभाग ये दोनों परस्पर विरोध रखनेवाले धर्म हैं । अर्थात् जहां सयोग रहता है, वहां विभाग, नहीं रह सकता है और जहां विभाग रहता है, वहां संयोग नहीं रह सकता है । इसलिये जब कि, संयोग और विभागमें भेद हुआ अर्थात् संयोग जुदा और विभाग जुदा रहा तो धर्मी ( इन दोनों संयोग और विभाग रूप धर्मोको धारण करनेवाला ) जो आकाश है, उसके भी अवश्य ही भेद हुआ । सो ही कहा है कि, जो “ विरुद्ध धर्मोका रहना है, सो तो भेद है और जो भिन्न २ कारणोंका होना है, वही भेदका कारण है । भावार्थ-पदार्थोका लक्षणके भेदसे । अथवा कारणके भेदसे भेद होता है । जैसे घट और पटमें यही भेद है कि, घट तो जल लाने आदिरूप धर्मोको धारण करता
है और पट ( वस्त्र ) शीतसे वचाने आदिरूप धर्मोको धारण करता है । और यही इन दोनोंमें भेद कारण है कि, घट तो K मृत्तिकाके पिंड आदिरूप कारणों से उत्पन्न होता है और पट तंतु आदि कारणों से उत्पन्न होता है । और जब धर्मोंके भेदसे 5
धर्मीमें भेद हुआ, तो, वह आकाश पूर्वपदार्थका जो संयोग था उस संयोगके विनाशरूप परिणामको धारण करनेसे नष्ट हुआ और दूसरे प्रदेशमें जो पुद्गलका संयोग हुआ इस कारण उस संयोगके उत्पाद ( उत्पत्ति ) नामक परिणामको अनुभवन ( धारण ) करनेसे वह आकाश उत्पन्न हुआ । और आकाश द्रव्य उन दोनों विनाश और उत्पादरूप अवस्थाओंमें द्रव्यरूपसे अनुगत ( चला आ रहा ) है अर्थात् विद्यमान है, उसका नाश नहीं हुआ है, इसलिये उत्पाद और व्यय इन दोनोंका एक IN
आकाश ही अधिकरण अर्थात् रहनेका स्थान है ॥ क तथा च “यदप्रच्युताऽनुत्पन्नस्थिरैकरूपं नित्यम्” इति नित्यलक्षणमाचक्षते तदपास्तम्। एवंविधस्य कस्यचिद्वIN|| स्तुनोऽभावात्। “तद्भावाऽव्ययं नित्यम्।” इति तु सत्यं नित्यलक्षणम् । उत्पादविनाशयोः सद्भावेऽपि तद्भावाद-IN
न्वयिरूपाद्यन्न व्येति तन्नित्यमिति तदर्थस्य घटमानत्वात् । यदि हि अप्रच्युतादिलक्षणं नित्यमिष्यते तदोत्पादव्यययोर्निराधारत्वप्रसङ्गः। न च तयोर्योगे नित्यत्वहानिः। "द्रव्यं पर्यायवियुतं पर्याया द्रव्यवर्जिताः।क्क कदा मा केन किंरूपा दृष्टा मानेन केन वा।१।” इति वचनात् । न चाकाशं न द्रव्यम् ।
१ नित्यत्वार्थस्य ।