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________________ प्रकृतिः” इति वचनात् । इति चेन्नैवं; तस्या अचेतनाया विमृश्यकारित्वाभावात् । यथेयं कृतेपि शब्दाद्युपलम्भे | पुनस्तदर्थं प्रवर्तते तथा विवेकख्यातौ कृतायामपि पुनस्तदर्थं प्रवर्तिष्यतेः प्रवृत्तिलक्षणस्य स्वभावस्यानपेतत्वात् । | नर्तकीदृष्टान्तस्तु स्वेष्टविघातकारी । यथा हि नर्तकी नृत्यं पारिषदेभ्यो दर्शयित्वा निवृत्तापि पुनस्तत्कुतूहलात् | प्रवर्तते तथा प्रकृतिरपि पुरुषायात्मानं दर्शयित्वा निवृत्तापि पुनः कथं न प्रवर्ततामिति । तस्मात् कृत्स्नकर्मक्षये | पुरुषस्यैव मोक्ष इति प्रतिपत्तव्यम् । यदि कहो कि “प्रकृति और पुरुषमें जो अंतर है उसको दिखाकर जब प्रकृति प्रवृत्ति करनेसे रुक जाती है तव जो पुरुषका अपने खरूपमें लीन होना है वही मोक्ष है" सो यह कहना मिथ्या है । क्योंकि; जब प्रकृतिका खभाव ही प्रवृत्तिकरना कहा है तो प्रवृत्तिसे रुकना कैसे होसकता है ? क्योंकि; पदार्थका स्वभाव नष्ट होनेपर तो पदार्थका नाश ही होजाता है । "प्रकृतिकी प्रवृत्ति केवल पुरुषार्थ उत्पन्न करनेकेलिये ही होती है और प्रकृति तथा पुरुषमें भेददृष्टिका होजाना ही पुरुषार्थ है । इसलिये भेददृष्टिरूप पुरुषार्थ [ कार्य ] उत्पन्न होनेपर कारणरूप प्रकृति कृतकृत्य होनेसे विश्रामको प्राप्त होती है। जैसे नटी रंगभूमिको अपना नृत्य | दिखाकर बंद होती है तैसे ही प्रकृति पुरुषको अपना स्वरूप दिखाकर निवृत्त होती है" ऐसा दृष्टांत भी कहा है । यह कहना | सर्वथा असत्य है । क्योंकि; अचेतन होनेसे प्रकृतिमें विचारपूर्वक कार्य करना ही असंभव है । और भी दूसरा दोष यह है कि प्रकृति जैसे शब्दादिकोंका ज्ञान एकवार होजानेपर भी फिरसे शब्दादिकोंके ज्ञान करनेमें प्रवर्तती है तैसे प्रकृति तथा पुरुषमें | भेददृष्टिरूप ज्ञान होनेपर भी फिरसे क्यों न प्रवर्ते ? क्योंकि; प्रवर्तनस्वभाव तो उस प्रकृतिने अभी छोड़ा ही नही है । इस विष - यमें नर्तकीका दृष्टांत भी उलटा तुम्हारे ही सिद्धांतका घात करता है । किस प्रकार ? जैसे नटी दर्शकोंको अपना नृत्य दिखाकर निवृत्त होजानेपर भी अच्छा नृत्य होनेके कारण यदि दर्शकजन फिर भी आग्रह करे तो फिरसे भी नृत्य करने लगती है तैसे ही प्रकृति भी पुरुषको अपना खरूप दिखाकर निवृत्त होनेके अनंतर फिरसे क्यों न प्रवृत्त हो ? और यदि फिरसे प्रवृत्त होना मानलिया जाय तो प्रकृतिका मोक्ष कभी हो ही नही सकैगा । इसलिये संपूर्ण कर्मोंका सर्वथा नाश होजानेपर पुरुष ( आत्मा ) का ही मोक्ष होता है ऐसा मानना चाहिये । एवमन्यासामपि तत्कल्पनानां " तमोमोहमहामोहतामिस्रान्धतामिस्रभेदात् पञ्चधा अविद्यास्मितारागद्वेषाभिनि
SR No.010452
Book TitleRaichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParamshrut Prabhavak Mandal
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1910
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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