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________________ स्थाद्वादम. ॥३७॥ व्याख्या । धर्मधर्मिणोरतीवभेदेऽतीवेत्यत्रेवशब्दो वाक्यालङ्कारे । तं च प्रायोऽतिशब्दाकिंवृत्तेश्च प्रयुञ्जते राजै.शा. शान्दिकाः। यथा “ आवर्जिता किञ्चिदिव स्तनाभ्याम्" "उद्धृत्तः क इव सुखावहः परेपाम्” इत्यादि न्तभिन्नत्वेऽङ्गीक्रियमाणे धर्मधम्मित्वं न स्यात् । अस्य धर्मिण इमे धम्मो एपां च धर्माणामय धीत्येवं सर्वप्रसिद्धो धर्मधम्मिव्यपदेशो न प्राप्नोति । तयोरत्यन्तभिन्नत्वेऽपि तत्कल्पनायां पदार्थान्तरधर्मा|णामपि विवक्षितधर्मधम्मित्वापत्तेः। व्याख्यार्थ:-"अतीवभेदे" धर्म (गुण) और धर्मी (गुणी) इन दोनोंको अत्यन्त भिन्न माननेपर ['अतीव' यहांपर जो अति के साथ 'इव' का योग (अतिxइव अतीव ) है, वह वाक्यके अलंकारमें है और शाब्दिक (व्याकरणके जाननेवाले) पुरुष इस 'इव' शब्दका प्रायः अतिशब्दके साथ, किवृत्ति ('किम्' शब्दके साथ समासको प्राप्त हुए शब्द) के साथ तथा किंशब्दके साथ योग किया करते है। जैसे कि " आवर्जिता किञ्चिदिव स्तनाभ्याम् ।" "उद्त्तः क इव सुखावहः परेपाम् । " यहांपर किंवृत्ति और किंशब्दके साथ 'इव' का योग किया गया है।]"धर्मधर्मित्वं" धर्मधर्मापना अर्थात् इस धर्मीक ये धर्म है, और इन धर्मोंका यह आधारभूत (रहनके स्थानरूप), धर्मी है, इसप्रकारका जो सर्वप्रसिद्ध धर्मधर्मिव्यवहार है, वह नहीं होता है। क्योंकि यदि धर्म और धर्मीके परस्पर अत्यत भेद होनेपर भी जो धर्मधर्मिभावकी कल्पना करोगे तो अन्यपदार्थोंके जो धर्म है, उनके भी विवक्षित धर्मधर्मिभाव हो जावेगा। भावार्थ-वैशेषिकमतमें द्रव्य (धर्मी) और गुण (धर्म ) इन दोनोंको सर्वथा भिन्न " माने गये हैं। क्योंकि 'जो द्रव्य उत्पन्न होता है, वह प्रथमक्षणमें गुणोंसे रहित ही रहता है, ऐसा उनका मत है । इसकारण शास्त्रकार कहते है कि, यदि परस्पर भेदके धारक धर्म और धर्मीके धर्मर्मिभाव मानोगे, तो एक पदार्थका धर्म किसी दूसरे पदार्थका धर्म हो जावेगा अर्थात् जब अग्निके उप्णत्वधर्मका अग्निके साथ और जलके शीतत्वधर्मका जलके साथ सर्वथा भेद होगा। तब जलका शीतत्व धर्म अग्निका धर्म हो जावेगा और अग्निका उप्णत्वधर्म जो है, वह जलका धर्म हो जावेगा। क्योंकि धर्म धर्मीके सर्वथा भेद होनेसे यह धर्म इसी धर्मीका है, ऐसा कोई नियामक [ नियम करानेवाला ] नहीं है। ॥३७॥ ___ एवमुक्ते सति परः प्रत्यवतिष्ठते । वृत्त्यास्तीति । अयुतसिद्धानामाधार्याधारभूतानामिहनत्ययहेतुः सम्बन्धः समवायः । स च समवयनात्समवाय इति, द्रव्यगुणकर्मसामान्यविशेपेषु पञ्चसु पदार्थेषु वर्तनाद् वृत्तिरिति
SR No.010452
Book TitleRaichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParamshrut Prabhavak Mandal
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1910
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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