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द्विादमं.
राजै.शा.
।२३॥
धिकारेऽपि क्षणिकवादचचो नानुपपन्ना । यदापि च कालान्तरावस्थायि वस्तु, तदापि नित्यानित्यमेव ।क्षणोऽपि न खलु सोऽस्ति यत्र वस्तु उत्पादव्ययध्रौव्यात्मकं नास्ति । इति काव्यार्थः॥५॥
यद्यपि अधिकृत वादियोंने अर्थात् जिनका हमने यहां खण्डन किया है, उन वैशेपिकोंने एक क्षणके सिवाय अन्य क्षणोंमें भी विद्यमान रहनेसे प्रदीप आदि पदार्थोंको क्षणिक नहीं माने है अर्थात् वैशेषिकोंके मतमें प्रदीप आदि बहुत क्षणों में रहते है । | क्योंकि, उनके मतमें पूर्व और उत्तरके अन्तसे मिली हुई जो सत्ता है अर्थात् जिसका पहिले भी अभाव हो और पीछे भी अभाव N हो ऐसी जो पदार्थकी विद्यमानता है, वह ही अनित्यताका लक्षण है । भावार्थ-चौद्ध जैसे सब पदाथोंको क्षणस्थायी होनेसे)
अनित्य कहते है, उसप्रकार वैशेपिक क्षणस्थायी पदार्थको अनित्य नहीं कहते, किंतु जिसका आदि और अन्त हो उस पदार्थको अनित्य मानते है । तथापि उन वैशेषिकोंने भी बुद्धि, सुख, दुःख आदि पदार्थोंको क्षणिकरूप ही स्वीकार किये है । इसकारण इस वैशेषिकोंके खण्डनमें भी जो हमने क्षणिकवादकी चर्चा कर डाली है, वह अनुचित नहीं है । और जब पदार्थ अन्य क्षणोंमें वर्त्त रहा है, उस समय भी वह पदार्थ नित्य तथा अनित्य, इन दोनों धर्मो रूप ही है। और वह कोई क्षण भी नहीं है कि, जिस क्षणम है पदार्थ उत्पाद व्यय और धौव्य खरूप न हो अर्थात् सब ही क्षणोंमें पदार्थ उत्पाद व्यय तथा ध्रौव्यरूप लक्षणका धारक है । इसप्रकार काव्यका भावार्थ है ॥ ५॥
अथ तदभिमतमीश्वरस्य जगत्कर्तृत्वाभ्युपगम मिथ्याभिनिवेशरूपं निरूपयन्नाह । ___ अब वैशेषिकोंने जो ईश्वरको जगतका कर्ता माना है, वह मिथ्या आग्रह रूप है । यह दिखलाते हुए आचार्य अग्रिम । काव्यका कथन करते हैं।
कर्तास्ति कश्चिजगतः स चैकः स सर्वगः स स्ववशः स नित्यः।
इमाः कुहेवाकविडम्बनाः स्युस्तेषां न येषामनुशासकस्त्वम् ॥६॥ ___ काव्यभावार्थ:-हे नाथ! जिनके आप उपदेशदाता नहीं हैं, उनके "जगतका कोई कर्ता है, वह एक है, वह सर्वव्यापी है, वह स्वाधीन है, और वह नित्य है" ये दुराग्रहरूपी विडंबनायें होती हैं।