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और जो यह कहा कि " अनेक पुरुषोंके आश्रय रहनेवाली प्रकृतिका ही बंधमोक्ष तथा संसारमें परिभ्रमण होता है; पुरुषका नहीं" वह सव असत्य है । क्योंकि अनादिकाल की संसारपरिपाटीसे साथ बंधी हुई प्रकृतिमें जो पुरुषका ऐसा गाढ ममत्वरूप प्रवल मिथ्याज्ञान जिसकी जुदाई आजपर्यंत न हुई वह भी यदि जीवका बंधन नही है तो और कोनसा बंधन है ? भावार्थ- बंधन वही | होता है जिसके होनेसे परतंत्रता रहै । इसलिये यहांपर भी पुरुषका प्रकृति के साथ ऐसा ममत्वरूप मिथ्याज्ञान ही बंधन होना चाहिये । क्योंकि इस प्रकृति के साथ एकताका जबतक ज्ञान है तभीतक जीव संसारमें है । जब यह ज्ञान नष्ट हो जाता है अर्थात् पुरुष प्रकृतिसे अपनेको जुदा समझने लगता है तभी संसारसे छूटकर मुक्त हुआ समझाजाता है । यही साख्यका भी मंतव्य है । इस कथनसे यही सिद्ध होता है प्रकृति तो कर्मरूप है और उसमें जो एकताका ज्ञान रहना वही पुरुषका बंधन है । इसलिये | पुरुष ही जबतक प्रकृतिमें एकताका मिथ्याज्ञान है तवतक बंधा है और संसारमें परिभ्रमण करता है और जब यह मिथ्याज्ञान नष्ट हो जाता है तभी इसकी मुक्ति हो जाती है । बंध, मोक्ष तथा ससाररूप अवस्था पुरुषकी न मानकर जो प्रकृतिकी ही मानना है। वह सर्वथा मिथ्या है । क्योंकि; प्रकृति तो कर्मरूप है और बंधका कारण है इसलिये वह स्वयं अपनेसे ही बद्ध तथा मुक्त कैसे कही | जासकती है 2 बंधके कारणके अतिरिक्त कोई दूसरा ही बंधनेवाला तथा छूटनेवाला होना चाहिये । जैसे वेढी तो बांधनेवाली है। और बंधने तथा उससे छूटनेवाला कोई और जीव ही होता है । वेढी स्वयं बंधती तथा छूटती नही है । प्रकृति सभी उत्पत्ति - मान् पदार्थों की उत्पत्तिका निमित्त कारण है ऐसा आपने ( सांख्यने ) माना भी है । हम भी कर्मका स्वरूप ऐसा ही मानते है। तथा कर्मको जड़ भी मानते है । इसलिये आपकी प्रकृति और हमारे कर्म में कुछ अंतर नही है; केवल नाममात्र भिन्न है । अर्थात् आप प्रकृति कहते है और हम कर्म कहते है ।
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यस्तु प्राकृतिकवैकारिकदाक्षिणभेदात्रिविधो बन्धः । तद्यथा । प्रकृतावात्मज्ञानाद्ये प्रकृतिमुपासते तेषां प्राकृ| तिको बन्धः । ये विकारानेव भूतेन्द्रियाहङ्कारवुद्धी: पुरुषबुद्ध्योपासते तेषां वैकारिकः । इष्टापूर्ते दाक्षिणः । पुरुषतत्त्वानभिज्ञो हीष्टापूर्तकारी कामोपहतमना वध्यते इति । इष्टापूर्त मन्यमाना वरिष्टं नान्यच्छ्रेयो येभिनन्दन्ति मूढाः नाकस्य पृष्ठे 'सुकृतेन भूत्त्वा इमं लोकं वा हीनतरं विशन्ति इति वचनात् ।
स त्रिविधोषि कल्पनामात्रं कथंचिन्मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकषाययोगेभ्योऽभिन्नस्वरूपत्वेन कर्मवन्धहेतुष्वे