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श्री संवेगरंगशाला
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परीषह सहन करने में समर्थ होना, अनाग्रही और गुणीजनों के प्रति वात्सल्य वाला बनना । मदिरा, शिकार और जुये को तो हे पुत्र ! देखना भी नहीं। क्योंकि उससे इस लोक और परलोक में होने वाले दुःख नजर के सामने दिखते हैं और शास्त्रों में भी सुना जाता है। केवल विषय की वासना को रोकने के बिना स्त्रियों का अति परिचय तथा विश्वास को मत करना, क्योंकि-उन स्त्रियों से भी बहत प्रकार के दोष उत्पन्न हैं। तथा क्रोध, लोभ, मद, द्रोह अंहकार, और चपलता का त्यागी बनना, तू मत्सर, पैशून्य, परोपताप और मृषावाद का भी त्याग करना, और सर्व आश्रमों (धर्मों) की तथा वर्णों की उसके वर्ण अनुसार मर्यादा का स्थापन या रक्षक बनना, तथा दुष्टों का निग्रह और शिष्टों का पालन करना।
और तू अति ज्यादा कर यदि रखेगा तो सूर्य के समान तू प्रजा का उद्वेग कारक बनेगा और अति हल्का कर (टैक्स) से चन्द्र के समान परभाव का पात्र बनेगा । अतः अति कठोर या अति हल्का कर लेने से भाव को बुद्धिपूर्वक अलग रख कर सर्वत्र द्रव्या, क्षेत्र, काल आदि का अनुरूप व्यवहार करना। दीन, अनाथ, दूसरे से अति पीड़ित तथा भयभीत आदि सबके दुःखों को पिता के समान, सर्व प्रयत्नों से जल्दी प्रतिकार करना और जो विविध रोगों का घर है और आज-कल अवश्य नष्ट होने वाले शरीर के लिए भी अधर्म के कार्य में रूचि नहीं करना । हे पूत्र ! ऐसा कुलिन कौन होगा कि तुच्छ सूख के लिए मूढ़ मति वाला बनकर असार शरीर के सुखों के लिए जीवों को पीड़ा दे । और देव, गुरु तथा अतिथि की पूजा सेवा विनय में तत्पर बनना । द्रव्य और भाव में शौचवाला होना, धर्म में प्रीति और दृढ़ता वाला, तथा धार्मिक जनता के वात्सल्य को करने वाला होना । सर्व जीवों की सारी प्रवृत्ति या सुख के लिए होती है और वह सुख धर्म के बिना नहीं मिलता है इसलिए हे पुत्र ! धर्मपरायण बनना । तथा हे पुत्र ! तू 'मेरे रात्री, दिन कौन से गुण में व्यतीत होते हैं ऐसा विचार करते सदा स्थिर बुद्धि वाला यदि बनेगा तो इस लोक और परलोक में दुःखी नहीं होगा। हे पुत्र ! हमेशा सदाचार से जो महान् हो उनके साथ परिचय करना, चतुर पुरुष के पास कथा श्रवण करना, और निर्लोभ बुद्धि वाले के साथ प्रीति करना। हे पुत्र ! सत्पुरुषों के द्वारा निर्देश की हुई उद्यम आत्म प्रशंसा जो कि विष मूर्छा के समान पुरुष को विवेक रहित करता है उसका त्याग करना । जो मनुष्य आत्म प्रशंसा करता है निश्चय उसे निर्गुणत्व की निशानी है, क्योंकि यदि उसमें गुण होता तो निश्चय अन्य जन अपने आप उसकी प्रशंसा करते। स्वजन या परजन की भी निन्दा तो विशेषकर त्याग