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श्री संवेगरंगशाला
जैसे औचित्य का रक्षण हो सके इस तरह विचार करके इन सातों अंगों की प्राप्ति के लिए तुम प्रयत्न करना। उसमें सर्वप्रथम तो तू अपनी आत्मा को विनय में जोड़ना; उसके बाद अमात्यों को फिर नौकर और पुत्रों को और उसके बाद प्रजा को विनय में जोड़ना । हे वत्स ! उत्तम कुल में जन्म, स्त्रियों के मन का हरण करने में चोर समान रूप, शास्त्र परिमित बुद्धि और भुज बल, और वर्तमान में विवेक रूपी सूर्य को आच्छादित करने में प्रचण्ड शक्ति वाला, मोहरूपी महा बादलों का अति घन समूह समान यह खिलता हुआ यौवन रूपी अन्धकार, पण्डितों के प्रशंसनीय प्रकृति और प्रजा द्वारा शिगेमान्य होती आज्ञा, इसमें से एक-एक भी निश्चय ही दुर्जय है, इसके गर्व से बचन दुष्कर हैं तो फिर सभी का समूह तो अति दुर्जय बनता है। और हे पुत्र ! जगत में भयंकर माना गया लक्ष्मी का मद भी पुरुष को अतिविकल बना कर शीघ्र कमीना बना देता है, तथा लक्ष्मी मनुष्यों को श्रुति-बहरा, वचन रहित और दृष्टि रहित कर देता है। उसमें विसंवाद क्या है ? अर्थात् वह उसका ऐसा ही कार्य है । और वह आश्चर्य है कि समुद्र में से उत्पन्न हुई वह जहर रूपी बहन होने पर भी मनुष्य को नहीं मारती है ? विष रूपी लक्ष्मी से कईयों की मृत्यु आदि होती है । और पूर्व के पुण्यकर्म के परिपाक से वैभव, श्रेष्ठ कुल, श्रेष्ठ रूप, और श्रेष्ठ राज्य भी मिलता है, लेकिन सर्व गुणों का कारणभूत विनय नहीं मिलता है। अतः अभिमान को त्याग कर विनय को सीखना परन्तु मद का अभिनय नहीं करना क्योंकि-हे पुत्र ! विनय से नम्र आत्माओं में महामूल्य वाले गुण प्रकट होते हैं । पृथ्वीतल में विद्वानों द्वारा मुख रूपी वीणा बजाने का दण्ड उसके द्वारा बजाने से विनय का यश गाथा सर्वत्र फैलता है। धर्म, काम, मोक्ष कलायें और विद्यायें ये सभी विनय से मिलती हैं। लक्ष्मी भी विनय से मिलती है । जब दुविनीत को वह वस्तु मिली हुई भी नाश करता है। इसलिए सर्व गुणों का आधारभूत जीव लोक में विनय ही है। अधिक कया कहें ? जगत में ऐसा कुछ नहीं कि जो विनय से प्राप्त न हो ! इस कारण से हे पुत्र ! कल्याण का कुल भवन समान विनय को तुम जरूर स्वीकार करना।
और सत्त्व की गोत्र की और धर्म की रक्षा में बाधा न पहुँचे इस तरह धन का उपार्जन करना, उसको बढ़ाना और रक्षण करना तथा सुपात्र में सम्यग् रूप में दान देना, राज्य सपत्ति के ये चार भेद हैं। इसलिए हे पुत्र ! तुम इन चारों के विषय में भी परम प्रयत्नपूर्वक प्रवृत्ति करना। साम, भेद, दान और दण्ड ये चार प्रकार की राजनीति है, उसे भी हे प्रिय पुत्र ! तू शीघ्र जान