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श्री संवेगरंगशाला
असमान होने पर भी हे भवन नाथ ! यदि आपकी उपमा दे तो आपकी ही उपमा आपको दे सकते हैं, और इस विश्व में आपके समान कोई नहीं है, ऐसा मैं समझता हूँ। इस तरह श्री जिनेश्वर भगवान की स्तुति कर गौतम स्वामी आदि गणधरों को नमस्कार करके प्रसन्न चित्त वाले राजा पृथ्वी के ऊपर बैठा। उसके बाद श्री जगद् गुरु वीर परमात्मा ने नर, तिर्यच और देव सबको समझ सके ऐसो सर्व साधारण वाणो द्वारा अमृत की वृष्टि समान धर्म उपदेश देना प्रारम्भ किया।
वीरप्रभु का उपदेश :-हे देवानुप्रिय ! यद्यपि तुम्हें भाग्ययोग द्वारा अति मुश्किल से समुद्र में पड़े रत्न के समान अति दुर्लभ मनुष्यत्व मिला है और चिन्तामणो के समान मनवांछित सकल प्रयोजन का साधन में एक समर्थ लक्ष्मो को भी भुजबल से तुमने प्राप्त की है। तुम्हारे पुण्य प्रकर्ष से इष्ट वियोग
और अनिष्ट संयोग आदि किसी प्रकार का दुःख अल्प भी तुमने देखा न है, खिले हुए नील कमल की माला समान दीर्घ नेत्रों वाली तरूण स्त्रियों में तुम्हें अत्यन्त गाढ़ राग हुआ परन्तु कम नहीं हुआ, तो भी तुम एक क्षण मन को राग द्वेष रहित बनाकर, मनुष्य जन्मादि जो तुम्हें मिला है उसका स्वरूप निपुण बुद्धि से इस तरह बारम्बार चिन्तन करो कि :-इस जन्म में मुश्किल से मिला हुआ भी मनुष्य जीवन में यदि धर्म आराधना नहीं करने से वह बेकार ही खत्म कर देता है तो पुनः भाग्ययोग द्वारा महा मुश्किल से प्राप्त करता है। क्योंकि-पृथ्वीकाल आदि में जीव असंख्यकाल तक रहता है और वह जीव वनस्पति में गया हुआ वहाँ अनन्त गुणाकाल तक रहता है। इसी प्रकार अन्य विविधहीन यानियों में अनेक बार परिभ्रमण करते जीव को पुनः यह मनुष्य भव को प्राप्ति कहाँ से हो सकती है ? समस्त अन्य मनोवांछित कार्यों को प्राप्त कर सकता है फिर भी शिव सुख की साधन में समर्थ यह उत्तम मनुष्य जीवन निश्चय ही दुर्लभ है । अति महा कलेशो से मिलने वाली, दुःख से रक्षण कर सके ऐसो लक्ष्मी है वह भी स्वजन, राजा, चोर, याचक आदि सर्व की साधारण है। परन्तु आपत्ति का कारणभूत, मूढ़ता करने वाली, एक ही जन्म के सम्बन्ध वाली, और शरद के बादल के समान अस्थिर उस लक्ष्मी में आनन्द मानना-राग करना वह हानिकारक है । और जिस किसी भी प्रकार से वर्तमान में इष्ट वियोगादि दुःख नहीं आया, तो इससे क्या हुआ ? इससे सदाकाल उसका अभाव हुआ है ? ऐसा निश्चय नहीं है क्योंकि सिद्धों को छोड़कर तीनों लोक में ऐसा अन्य जीव नहीं है कि जिसे शारीरिक-मानसिक दुःख प्रगट न हो।