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( 56 ) जयसेनाचार्य ने पंचास्तिकाय संग्रह की गा० ७५ टीका में कहा है -
एवं भेदवशात् द्वयणुकस्कधादनंता: स्कंधप्रदेशपर्यायाः। निविभागकप्रदेशः स्कंधस्यांत्योभेदः परमाणुरेकः ।
अर्थात् द्वि अणुक स्कंध से अनंत स्कंध पर्यन्त प्रदेश रूप पर्यायें होती है । निविभाग--एक प्रदेशवाला, स्कंध का अन्तिम अंश वह एक परमाणु है।
१-परमाणुओं के विशेष गुण जो स्पर्श-रस-गंध-वर्ण हैं उनमें होनेवाली षटस्थानपतित वृद्धि वह पूरण है और षट्स्थानपतित हानि वह गलन है, इसलिये इस प्रकार परमाणु पूरण-गलन धर्मवाले हैं ।
२-परमाणुओं में स्कंध रूप पर्याय का आविर्भाव होना वह पूरण है और तिरोभाव होना वह गलन है-इस प्रकार भी परमाणुओं में पूरण-गलन घटित होता है।
अतः जिसमें (स्पर्श-रस-गंध-वर्ण की अपेक्षा से तथा स्कंधपर्याय की अपेक्षा से) पूरण-गलन हो वह पुद्गल है। पूरण-पूरना, भरना, पूर्ति पुष्टि, वृद्धि । गलनगलना, क्षीण होना, कृशता, हानि, न्यूनता । पंचास्तिकाय में कहा है
स्कंधास्त्वनेकपुद्गलमयकपर्यायत्वेन पुद्गलेभ्योऽनन्यत्वात्पुद्गला इति व्यवहृयंते।
- पंचास्तिकाय गा ७६ । टीका ___ अर्थात् स्कंध अनेक परमाणुमय एक पर्याय है और परमाणु तो पुद्गल है, अतः स्कंध भी व्यवहार से पुद्गल है। सर्व स्कंधों का जो अन्तिम भाग उसे परमाणु जानना चाहिए। वह अविभागी, एक शाश्वत, मूर्त रूप से उत्पन्न होनेवाला और अशब्द है।
अस्तु परमाणु आदेश मात्र से मूर्त है और चार धातुओं का कारण है, परिणामगुणवाला है और स्वयं अशब्द है। पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु रूप चार धातुओं का, परिणाम के कारण, एक ही परमाणु कारण है। अर्थात् परमाणु एक ही जाति के होने पर भी वे परिणाम के चार कारण चार धातुओं के कारण बनते हैं। क्योंकि विचित्र ऐसा परमाणु का परिणामगुण कहीं किसी गुण की व्यक्तव्यक्तता द्वारा विचित्र परिणति को धारण करता है।' १. पंचा० गा ७८ । टीका
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