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प्रथम अध्ययन : हिंसा-आश्रव
किन्तु जब उसको अपने जीवन से कोई वियुक्त करता है, तो उसे अत्यन्त दुःख होता है, यही हिंसा का जनक है।
__२३-भयंकर—भयंकर का अर्थ है—भय पैदा करने वाला। वध के नाम से ही प्राणी डर के मारे कांप उठता है। जिसका वध किया जाता है, उसे तो भय लगता ही है, साथ ही वध करने वाले के मन में भी यह भय बैठ जाता है, कि कहीं यह सामना करके मुझे मार न बैठ । कहीं यह मुझ पर प्रहार न कर दे । अथवा इसके रिश्तेदार कहीं मुझे जान से न मार डालें। साथ ही उसके मन में यह भी भय पैदा हो जाता है, कि मुझे इस हत्या के फलस्वरूस नरक में जाना पड़ेगा, या परलोक में यह प्राणी मुझसे किसी न किसी रूप में बदला जरूर लेगा। उस समय मैं क्या करूँगा ? इस तरह प्राणिवध चारों ओर भय ही भय पैदा करने वाला होने के कारण इसका भयंकर नाम ठीक ही है।
२४-ऋणकर-प्राणिवधपापरूप ऋण को चुकाते समय-फल भोगते समय बड़ा ही दुःखी होना पड़ता है। प्राणवध के फलस्वरूप व्यक्ति पापरूपी ऋण का बोझ ढोता रहता है । पापरूपी ऋण के फलस्वरूप व्यक्ति इस लोक में भी दरिद्र, दुःखी, शारीरिक-मानसिक व्यथाओं से पीड़ित, रोग, शोक आदि से संतप्त रहता है। ये सब कष्ट तो उस ऋण के ब्याज के तौर पर हैं। परलोक में भी इस कठोर ऋणं के कारण नरक आदि में छेदन-भेदन आदि असह्य यातनाएं और तिर्यंचगति में भी भूख, प्यास, शर्दी, गर्मी आदि के नाना दुःख भोगने पड़ते हैं, जो उस ऋण के कुफल हैं। इसलिए प्राणिवध को ऋणकर ठीक ही कहा है।
२५-वज्र या वयं अथवा सावद्य-प्राणिवध वज्र के समान बड़ा कठोर है । जिसका प्राणवध किया जाता है, उसे वह वज्र के समान अति कठोर लगता है । प्राणवध • उसे सुहाता नहीं। प्राणी का कोमल हृदय इसे सह नहीं सकता, वह कांप उठता है । इसलिए इसे 'वज्र' कहा है। इसका एक संस्कृत रूप वयं भी होता है, जिसका अर्थ है वर्जनीय । यानी प्राणिवध हमेशा से महापुरुषों-तीर्थंकरों द्वारा वर्मनीय होता है, निषिद्ध होता है, इसलिए इसे 'वर्य' कहा। साथ ही इसका पाठांतर 'सावज्ज' भी मिलता है, जिसका अर्थ होता है--पाप से युक्त कर्म । हिंसा पापयुक्त कर्म होने से इसे सावध कहा, यह ठीक ही है।
२६-परितापाश्रव—परितापकारी मृषावाद आदि अन्य आश्रव इस आश्रव से होते हैं, इसलिए प्राणिवध को परितापाश्रव कहा । अथवा यह आश्रव दूसरे मृषावाद' आदि आश्रवों की अपेक्षा अधिक परिताप (संताप) देने वाला होने से इसे परितापाश्रव कहा । वास्तव में मृषावाद आदि आश्रवों के सेवन से दूसरों को इतनी पीड़ा नहीं होती, सीधी चोट नहीं पहुँचती , जितनी प्राणवध नामक इस आश्रव से दूसरों को