Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 1
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
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प्रमेयकमलमार्तण्डे
साकल्यस्याप्युपचारेण साधकतमत्वोपगमे न किंचिदनिष्ट म् मुख्यरूपतया हि स्वपरपरिच्छित्तौ साधकतमस्य ज्ञानस्योत्पादकत्वात् तस्यापि साधकतमत्वम् ; तस्माच्च प्रमाणं-कारणे कार्योपचारात्-अन्न वै प्राणा इत्यादिवत् । प्रदीपेन मया दृष्टं चक्षुषाऽवगतं धूमेन प्रतिपन्नमिति लोकव्यवहारोऽप्युपचारतः; यथा ममाऽयं पुरुषश्चक्षुरिति-तेषां प्रमिति प्रति बोधेन व्यवधानात्, तस्य त्वपरेणाव्यवधानात्तन्मुख्यम् । न च व्यपदेशमात्रात्पारमार्थिकवस्तुव्यवस्था 'नड्वलोदकं पादरोगः, इत्यादिवत् । ततो यबोधाऽबोधरूपस्य प्रमाणत्वाभिधानकम्
_ 'लिखितं साक्षिणो भुक्तिः प्रमारणं त्रिविधं स्मृतम्' [ ] इति तत्प्रत्याख्यातम् ; ज्ञानस्यैवाऽनुपचरित प्रमाणव्यपदेशार्हत्वात् । तथाहि-यद्यत्राऽपरेण व्यवहितं न तत्तत्र मुख्यरूपतया साधक
समाधान-यह शंका अयुक्त है, दीपक में तो उपचार से साधकतमपना माना है, ऐसा ही कारकसाकल्य को उपचार से साधकतमपना मानो तो हम जैन को कुछ अनिष्ट नहीं है, मुख्य रूप से स्वपर की परिच्छित्ति में तो ज्ञान साधकतम है, और उसको उत्पन्न कराने में कारण होने से कारकसाकल्य को भी साधकतमपना हो सकता है, इस तरह प्रमाण के-ज्ञान के कारण में कार्य का उपचार करके अन्न ही प्राण है, इत्यादि के समान कहा जाता है, अर्थात् प्रमाण का जो कारण है उसको भी प्रमाण कहना यह उपचारमात्र है, अांख के द्वारा जाना, दीप से जाना, धूम से जाना इत्यादि लोक व्यवहार भी मात्र औपचारिक है, "यह पुरुष मेरी आंखें हैं" इत्यादि कहना भी उपचार है, क्योंकि इनके द्वारा होने वाली जानकारी के प्रति ज्ञान का व्यवधान पड़ता ही है, ज्ञान में तो ऐसा नहीं है, वह तो अव्यवधान से वस्तु को जानता है, उपचारसे कोई पारमार्थिक वस्तुव्यवस्था नहीं होती है, जैसे “नड्वलोदकं पादरोगः" नवलोदक पादरोग है, घास से युक्त जो जल होता है उसे नड्वलोदक कहते हैं, उससे पैर में रोग होता है, [तालाब आदि में गंदा पानी होता है, उसमें बार बार पैर देने से पैर में "नारू" नामका रोग हो जाता है, उसमें घुटने के नीचे भाग में धागे के समान आकारवाले लंबे २ दो इन्द्रिय कीड़े निकलते हैं, पैर में छेद भी हो जाते हैं, सो पैर में रोग होने का कारण होने से उस पानी को भी रोग कहना उपचार मात्र है] सो नड्वलोदक पादरोग है ऐसे कहने मात्र से कोई साक्षात् जल ही रोग नहीं बन जाता है, इस प्रकार वास्तविक वस्तु को जानने के लिए ज्ञान ही साधकतम है, और उपचार से कारक साकल्यादि भी साधकतम है; यह सिद्ध हुआ। कोई ज्ञान और अज्ञान को समानरूप से प्रमाण बताते हैं, "लिखितं साक्षिणो भुक्तिः प्रमाणं त्रिविधं
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