Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 1
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
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कारकसाकल्यवादः
तत्र प्रमाणस्य ज्ञानमिति विशेषणेन 'अव्यभिचारादिविशेषणविशिष्टार्थोपलब्धिजनक कारकसाकल्यं साधकतमत्वात् प्रमाणम्' इति प्रत्याख्यातम् ; तस्याऽज्ञानरूपस्य प्रमेयार्थवत् स्वपरपरिच्छित्तौ साधकतमत्वाभावतः प्रमाणत्वायोगात्-तत्परिच्छित्तौ साधकतमत्वस्याऽज्ञानविरोधिना ज्ञानेन व्याप्तत्वात् । छिदौ परश्वादिना साधकतमेन व्यभिचार इत्ययुक्तम् ; तत्परिच्छित्तावितिविशेषणात्, न खलु सर्वत्र साधकतमत्वं ज्ञानेन व्याप्त-परश्वादेरपि ज्ञानरूपताप्रसङ्गात् । अज्ञानरूपस्यापि प्रदीपादेः स्वपरपरिच्छित्तौ साधकतमत्वोपलम्भात्तेन तस्याऽव्याप्तिरित्यप्ययुक्तम् ; तस्योपचारात्तत्र साधकतमत्वव्यवहारात् ।
प्रमाण के लक्षण में "ज्ञान" यह जो विशेषण दिया है सो इस विशेषण से जरन्नैयायिक के द्वारा माना गया जो कारकसाकल्यवाद है जिसका खंडन हो जाता है, अर्थात् नैयायिक कहते हैं कि व्यभिचारादिदोषों से रहित विशिष्ट अर्थ का ज्ञान कराने वाला कारकसाकल्य है, अतः यह प्रमाण है, सो इस कथन का "ज्ञान" विशेषण से खंडन हो जाता है, क्योंकि कारकसाकल्य अज्ञानरूप है, वह प्रमेय-पदार्थ के समान अपना और पर का ज्ञान कराने में साधकतम हो ही नहीं सकता है, अतः प्रमाण नहीं होगा, पदार्थ की परिच्छित्ति-जानकारी के लिये अज्ञान का विरोधी ज्ञान ही साधकतम होगा, क्योंकि परिच्छित्ति की तो ज्ञान के साथ ही व्याप्ति है।
प्रश्न-छेदनक्रिया में तो परशु-कुठार-आदि अज्ञानी ही साधक हो जाते हैं ।
उत्तर--नहीं, यहां परिच्छित्ति का प्रकरण है, सर्वत्र साधकतम ज्ञान ही हो यह नहीं कहा है, क्योंकि साधकतम और ज्ञान की व्याप्ति करेंगे, तब तो कुठारादि भी ज्ञानरूप बन जायेंगे।
शंका-स्व और पर की परिच्छित्ति में अज्ञानरूप भी दीपक में साधकतमा देखी जाती है, अत: अतिव्याप्लि दोष आता है ।
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