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प्रस्तावना
पद्मचरितका साहित्यिक रूप
पद्मचरितकी भाषा प्रसादगुणसे ओत-प्रोत तथा अत्यन्त मनोहारिणी है। माणिकचन्द्र ग्रन्थमालासे प्रकाशित पद्मचरितको देखने के बाद पहले मेरे मन में धारणा जम गयी थी कि इसमें वाल्मीकि रामायणके समान भाषा सम्बन्धी शिथिलता अधिक है पर जब हस्तलिखित प्रतियोंसे मिलान करने पर शुद्ध पाठ सामने आये तब हमारी उक्त धारणा उन्मूलित हो गयी । वन, नदी, सेना, युद्ध आदिका वर्णन करते हुए कविने बहुत ही कमाल किया है। चित्रकूट पर्वत, गंगा नदी तथा वसन्त आदि ऋतुओंका वर्णन आचार्य रविषेणने जिस खूबीसे किया है वैसा तो हम महाकाव्योंमें भी नहीं देखते हैं। प्रस्तावना लेख लम्बा हुआ जा रहा है नहीं तो मैं वे सब अवतरण उद्धृत कर पाठकोंके सामने रखता जिनमें कविको लेखनीने कमाल किया है। विमल सूरिके 'पउमचरिय' को पढ़नेके बाद जब हम रविषेणके पद्मचरितको पढ़ते हैं तब स्पष्ट जान पड़ता है कि इन्होंने अपनी रचनाको कितनी सरस और काव्यके अनुकूल बनाया है।
यह अनुवाद और आभार प्रदर्शन
महापुराणके प्रस्तावना लेखमें मैंने लिखा था कि दिगम्बर जैन सम्प्रदायमें महापुराण, पद्मपुराण और हरिवंशपुराण ये तीनों ही पराण साहित्यके शिरोमणि हैं। महापुराणका सानुवाद सम्पादन कर प्रसन्नताका अनुभव करते हए मैंने शेष दो पुराणों के सम्पादन तथा प्रकाशनकी ओर समाजका ध्यान आकर्षित किया था। प्रसन्नताकी बात है कि भारतीय ज्ञानपीठके संचालकोंको मेरो वह बात पसन्द पड़ गयी जिससे उन्होंने ज्ञानपीठसे इन दोनों पुराणोंका भी प्रकाशन स्वीकृत कर लिया। जैन सिद्धान्तके मर्मज्ञ, सहृदय शिरोमणि पं. फूलचन्द्रजीने भी ज्ञानपीठके संचालकोंका ध्यान इस ओर आकृष्ट किया। इसलिए मैं इन सब महानुभावोंका अत्यन्त आभारी हूँ। ग्रन्थका सम्पादन हस्तलिखित प्रतियोंके बिना नहीं हो सकता, इसलिए मैंने अपने सहाध्यायी मित्र पं. परमानन्दजी देहलीको हस्तलिखित प्रतियों के लिए लिखा, तो वे देहलीके भाण्डारोंसे दो मल प्रतियां एक श्रीचन्द्र के टिप्पणको प्रति तथा अपनी निजी लाइब्रेरीसे 'पउमचरिय' लेकर स्वयं सागर आकर दे गये। शेष दो प्रतियाँ भी बम्बई तथा जयपुरसे प्राप्त हुई इसलिए मैं इस साधन सामग्री के जटानेवाले महानुभावोंका अत्यन्त आभारी हूँ। चार हस्तलिखित और एक मुद्रित प्रतिके आधारपर मैंने पाठ-भेद लिये हैं। अबकी बार पाठ-भेद लेनेमें अकेले ही श्रम करना पड़ा, इसलिए समय और शक्ति पर्याप्त लगानी पड़ी। प्रारम्भसे लेकर २८ पर्व तक तो मूल श्लोकोंकी पाण्डुलिपि मैंने स्वयं तैयार की परन्तु 'ब' प्रतिके अधिकारियोंका सख्त तकाजा जल्दी भेजनेका होनेसे उसके बाद माणिकचन्द्र ग्रन्थमालासे मद्रित मूल प्रतिपर ही अन्य पुस्तकों के पाठ-भेद अंकित करने पड़े। ग्रन्थ सम्पादन, साहित्यिक सेवाका अनुष्ठान है । विद्वान् इसे सुविधानुसार ही कर पाते हैं और फिर मुझ-जैसे व्यक्तिको जिसे अन्यान्य अनेक कार्यों में निरन्तर उलझा रहना पड़ता है, कुछ समय ज्यादा लग जाता है इस बीच में प्रतियों के अधिकारियोंकी ओरसे बार-बार जल्दी भेजनेका तकाजा अखरने लगता है। सरस्वती भवनकी आलमारियों में रखे रहनेकी अपेक्षा यदि उनकी प्रतिका किसी ग्रन्थ के निर्माणमें उपयोग हो रहा है तो मैं इसे उत्तम ही समझता हूँ। अस्तु, जो प्रति जितने समयके लिए प्राप्त हुई उसका मैंने पूर्ण उपयोग किया है और मैं उन प्रतियों के प्रेषकों तथा संरक्षकों के प्रति अत्यन्त आभार प्रकट करता हूँ। पद्मचरितका ग्यारहवां पर्व दार्शनिक विचारोंसे भरा है,
के तीन-चार श्लोकोंका भाव हमारी समझमें नहीं आया जिसे पं. फलचन्द्रजीने मिलाया है इसलिए मैं इनका आभारी हूँ।
प्रस्तावना लिखने में इतिहासज्ञताकी आवश्यकता है और इस विषयमें मैं अपने आपको बिलकुल अनभिज्ञ समझता हूँ। प्रस्तावनामें जो कुछ लिखा गया है वह श्रद्वेष विद्वान् श्री नाथूरामजी प्रेमी, बम्बई,
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