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पद्मपुराणे वनवासमें लक्ष्मण राम तथा सीताको सुख-सुविधाका पूरा ख्याल रखते हैं । आहारादिको व्यवस्था यही जुटाते हैं । शूरवीरताके तो मानो अवतार ही हैं। भयका अंश भी इनके हृदयमें नहीं दिखता है। रामके अनन्य आज्ञाकारी हैं । वनवास में यदि कहीं किसी राजाके यहां विवाह आदिकी चर्चा आती है तो आप साफ कह देते हैं कि हमारे बड़े भाईसे पूछो । लंकामें युद्धके समय जब इन्हें शक्ति लगती है तब राम बड़े दुःखी हो जाते हैं, करुण-विलाप करते हैं, पर विशल्याके स्नान जलसे उनकी व्यथा दूर हो जाती है। रावणका चक्र इनके हाथमें आता है और उसीसे ये रावणका नाश करते हैं । दिग्विजयके द्वारा भरतके तीन खण्डोंमें अपना आधिपत्य स्थापित करते हैं। रामके इतने अनरागी हैं कि उनके मरणका झठा समाचार पाकर ही शरीर छोड़ देते हैं। प्रकृति में यद्यपि उग्रता है पर गाम्भीर्यके सागर बड़े भाईके समक्ष छोटे भाईकी यह उग्रता शोभास्पद ही दीखती है।
[९] भरत
भरत राजा दशरथको केकया रानीके सुत हैं। माताकी छल-क्षुद्रतासे कोसों दूर हैं। इन्हें राजा बनाने के लिए केकयाने सब कुछ किया पर इन्होंने राजा बनना स्वीकृत नहीं किया। गृहवाससे सदा उदास दृष्टिगत होते हैं। रामके वनवासके समय दृढ़तासे राज्यका पालन करते हैं। लोकव्यवहार और मर्यादाके रक्षक है । रामके वनवाससे आनेके बाद विरक्त हो प्रव्रज्या ले लेते हैं ।
[१०] हनुमान्
रामके कथानकमें हनुमानका संयोग मणिकांचन संयोग है। वाल्मीकिने हनुमानका जो वर्णन किया है वह असंगत तथा महापुरुषका अवर्णवाद है, ये वानर वंशके शिरोमणि तद्भव-मोक्षगामी विद्याधर हैं, इनका साक्षात् वानरके रूप में वर्णन करना अविचारित रम्य है। इनके पिताका नाम पवनंजय और माताका नाम अंजना है । अंजनाने २२ वर्ष तक पतिके विप्रलम्भमें जो लम्बा कष्ट सहा है और उसके बाद सास केतुमतीके कटुक व्यवहारसे वनमें जो दुःख भोगे हैं उन्हें पढ़कर कोई भी सहृदय व्यक्ति आँसू बहाये बिना नहीं रह सकता। अंजनाके चरित्र-वित्रणमें आचार्य रविषेणने करुण रसकी जो धारा बहायो है उससे प्रकृत ग्रन्थका पर्याप्त गौरव बढ़ा है। सीताहरणके बादसे हनुमान रामके सम्पर्क में आते हैं और रामको अयोध्या वापस भेज देने तक बड़ी तत्परतासे उनकी सेवा करते हैं। हनुमान् चरमशरीरी महापुरुष हैं।
[११] विभीषण
विभीषण रावणके छोटे भाई हैं। धर्मज्ञता और नीतिज्ञताके मानो अवतार ही हैं। 'रावणका मरण दशरथ और जनककी सन्तानोंसे होगा' किसी निमित्तज्ञानीसे ऐसा जानकर आप दशरथ तथा जनकका नाश करने के लिए भारत में आते हैं पर नारदकी कृपासे दशरथ और जनकको पहलेसे ही यह समाचार मालूम हो जाता है, इसलिए वे अपने महलोंमें अपने ही जैसे पुतले स्थापित कर बाहर निकल जाते हैं। विभीषण उन पुतलोंको सचमुचके दशरथ और जनक समझ तलवारसे उनके सिर काटकर सन्तोष कर लेते हैं पर जब उनकी अन्तरात्मामें विवेक जागृत होता है तब वे अपने इस कुकृत्यसे बहुत पछताते हैं। रावण सीताको हरकर लंका ले जाता है तब विभीषण उसे शक्ति-भर समझाते हैं। अन्त में जब नहीं समझता है और उलटा विभीषणका तिरस्कार करता है तब उसे छोड रामले आ मिलते हैं. राम उनकी नैतिकतासे बहत प्र होते हैं । इस प्रकार हम एक माँके उदरसे उत्पन्न रावण और विभीषणको अन्धकार और प्रकाशके समान विभिन्न रूपमें पाते हैं।
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