Book Title: Karmagrantha Part 1
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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(३) ईश्वर एक ऐसा व्यक्ति होना चाहिए जो सदा मुक्त हो और मुक्त जीवों की अपेक्षा भी उसमें कुछ विशेषता हो। अत: कर्मवाद का यह मानना ठीक नहीं कि कर्म से छूट जाने पर सभी मुक्त, अर्थात् ईश्वर हो जाते हैं।
जा आक्षेपों के : नानि करार कर है. .
(१) यह जगत् सदा से है, किसी समय नया नहीं बना है | परिवर्तन अवश्य होते रहते हैं। अनेक परिवर्तन ऐसे होते हैं कि जिनमें किसी मनुष्य आदि प्राणिवर्ग के प्रयत्न की अपेक्षा होती है और दूसरे ऐसे भी परिवर्तन देखे जाते हैं, जिनमें किसी के प्रयत्न की अपेक्षा नहीं भी रहती है। वे जड़ तत्त्वों के तरह-तरह के संयोगों-वियोगों से स्वत: स्वयमेव बनते रहते हैं, इसलिए ईश्वर को सृष्टिकर्ता मानने की कोई जरूरत नहीं है और न उपयोगिता है।
(8) यह ठीक है कि कर्म जड़ हैं और प्राणी अपने किये हर बुरे कर्म का फल नहीं चाहते हैं, परन्तु यह ध्यान रखना चाहिए कि जीव (वेतन) के संयोग से कर्म में एक प्रकार की ऐसी शक्ति पैदा हो जाती है कि जिरासे वह अपने अच्छे चुरे विपाकों को नियत समय पर प्रकट करता है ।
कर्म सिद्धान ग्रह नहीं मानता कि चेतन के सम्बन्ध के सिवाय ही जडकर्म फल बने में समर्थ हैं, परन्तु यह मानना है कि फल देने के लिए ईश्वररूप चेनन की प्रेरणा मानने की कोई जरूरत नहीं है, क्योंकि सभी जीव चेतन है
और वे जैसा कर्म करते हैं, उसके अनुसार उनकी वैसी बुद्धि बन जाती है, जिससे बुरे कम के फल की इच्छा न रहने पर भी व ऐसा कृत्य कर बैठते हैं कि जिससे उनको अपने कर्मानुसार पान मिल जाता है । कर्म करना और फल न चाहना. ये दो अलग-अलग स्थितियां हैं, केवल चाह न होने से ही किये गये कर्म का फल मिलने से रुक नहीं सकता है । सामग्री इकट्ठी हो गई हो तो कार्य, आप-ही-आप होने लगता है, जैसे-एक मनुष्य धूप में खड़ा हो. गरग चीज स्वाना हो और चाहे कि प्यास न लगे तो क्या किसी तरह प्यास रुक सकती है? यदि ईश्वरकत त्ववादी यह कहें कि ईश्वर की इच्छा से प्रेरित होकर कर्म अपना फल प्राणियों पर प्रकट करते है तो इसका उत्तर यह है कि कर्म करने के समय परिणामानुसार जोब में ऐसे संस्कार पड़ जाते हैं कि जिनसे प्रेरित होकर का जीव कम के फल को आप ही भोगते हैं ।