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प्रथम कर्मग्रन्थ
(१) देवानुपूर्वी,
(३) तिर्यचानुपूर्वी
(२) मनुष्यानुपूर्वी,
और
(४) नरकानुपूर्वी ।
जिम कर्म के उदय से विग्रहगति में रहा हुआ जीव आकाशप्रदेशों की श्रेणी के अनुसार गमन कर उत्पत्ति स्थान पर पहुँचता है, उमे आनुपूर्वी नामकर्म कहते हैं ।
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गति करने की शक्ति जीव और पुद्गल में है। अतः निमित्त दोनों गतिया में होकर गति करने लगते हैं । बारे में विचार किया जा
किन्तु यहाँ मुख्यतया जीव की गति के रहा है ।
जीव की स्वाभाविक गति श्रेणी के अनुसार होती है। आकाशप्रदेशों की पंक्ति को श्रेणी कहते हैं। जीव की यह गति दो प्रकार की होती है ---ऋऋजु और वक्र । ऋजुगति से स्थानान्तर जाते समय जीव को किसी प्रकार का नवीन प्रयत्न नहीं करना पड़ता है, क्योंकि जब वह पूर्व शरीर छोड़ता है, तब उसे पूर्व शरीरजन्य वेग मिलता है और उसी के वेग से दूसरे प्रयत्न के बिना धनुष से छूटे बाण के समान सीधा अपने नवीन स्थान पर पहुँच जाता है। दूसरी गति वक्रघुमाव वाली होती है। इसलिए इस गति से जाते हुए जीव को नये प्रयत्न की अपेक्षा होती है। क्योंकि पूर्व शरीरजन्य प्रयत्न वहाँ तक ही कार्य करता है, जहाँ से जीव को घूमना पड़े। इन दोनों प्रकार की गतियों में मुक्त जीव की गति ऋजुगति ही होती है और संसारी जीव की ऋज और वक्र दोनों प्रकार की गति होती है ।
इस भव सम्बन्धी शरीर को छोड़कर भवान्तर सम्बन्धी शरीर को धारण करने के लिए जब संसारी जीव की गति होती है, यानी विग्रहगति में रहा हुआ जीव गति करता है तो आकाश-प्रदेशों की श्रेणी के
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