Book Title: Karmagrantha Part 1
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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प्रथम कर्मग्रन्थ
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पूर्णता क्रमशः होती है। अर्थात् आहार के बाद शरीर, शरीर के बाद इन्द्रिय आदि । इस प्रकार मनपर्याप्ति पर्यन्त पर्याप्तियों का क्रम सम झना चाहिए । इसको एक उदाहरण द्वारा स्पष्ट करते हैंजैसे ग्रह कातने वाली स्त्रियों ने एक साथ रुई कातना प्रारम्भ किया, किन्तु उनमें से मोटा सूत कातने वाली जल्दी पूरा कर लेती है और बारीक कातने वाली देर से पूरा करती है । इसी प्रकार पर्याप्तियों का प्रारम्भ तो एक साथ हो जाता है, किन्तु पूर्णता अनुक्रम से होती है ।
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औदारिक, वैक्रिय और आहारक- इन तीन शरीरों में पर्याप्तिया होती हैं । उनमें इनकी पूर्णता का क्रम निम्न प्रकार समझना चाहिएऔदारिक शरीर बाला जीव पहली पर्याप्ति एक समय में पूर्ण करता है और इसके बाद अन्तर्मुहूर्त में दूसरी, इसके बाद तीसरी । इसी प्रकार चौथी, पांचवीं और छठी प्रत्येक क्रमश: अन्तर्मुहूर्त, अन्तमुहूर्त के बाद पूर्ण करता है ।
वैक्रिय और आहारक शरीर वाले जीव पहली पर्याप्ति एक समय में पूरी कर लेते हैं और उसके बाद अन्तम हूर्त में दूसरी पर्याप्ति पूर्ण करते हैं और उसके बाद तीसरी चौथी, पांचवीं और छठी पर्याप्ति अनुक्रम से एक-एक समय में पूरी करते हैं। किन्तु देव पाँचवीं और छठी इन दोनों पर्याप्तियों को अनुक्रम से पूर्ण न कर एक साथ एक समय में ही पूरी कर लेते हैं ।
आहार आदि हों पर्याप्तियों के लक्षण इस प्रकार हैं(१) जिस शक्ति से जीव बाह्य आहार पुद्गलों को ग्रहण करके खलभाग, रसभाग में परिणमात्रे ऐसी शक्ति- विशेष की पूर्णता को आहारपर्याप्त कहते हैं ।