________________
१५६
कर्मविपाक
बोलने का प्रदर्शन करते हुए भी मन में कपटभाव रखने वाला, - अपने दोषो के लिए चौकन्ना रहने वाला और इसमें चतुराई समझने वाला जीव तिवायु का बन्ध करता है ।
लेकिन जो जीव सरल हृदय वाला है, अल्प- आरम्भी और अल्पपरिग्रही है, दान देने में उत्साह रखने वाला है, मन्दकषाय वाला होने से जीव मात्र के प्रति दया, क्षमा, मार्दव आदि भाव रखने वाला है, वह मनुष्यायु का बन्ध करता है ।
गाथा में जो 'मक्षिम गुणो' पद आया है, उसका अर्थ यह हैं कि कि अक्षम गुणों से नरकायु का और उत्तम गुणों से देवायु का बन्ध होता है और जो जीव मध्यम गुण वाला है, वह मनुष्यायु का बन्ध करता है ।
देवायु और नामकर्म के बन्धहेतु
अविरमा सुराउं बासवोऽकामनिज्जरो जयइ । सरलो अगारविल्लो सुहनामं अन्ना असुहं ॥५६॥ गायार्थ - अविरत सम्यग्दृष्टि आदि तथा बालतप, अकामनिर्जरा करने वाला जीव देवायु का बन्ध करता है। सरल परिणाम वाला एवं निरभिमानी जीव शुभ नामकर्म की प्रकृतियों का तथा इसके विपरीत वृत्तिवाला जीव अशुभ नामकर्म की प्रकृतियों का बन्ध करता है ।
विशेषार्थ - गाथा में क्रमश: देवायु और नामकर्म की शुभ और अशुभ प्रकृतियों के बन्धकारणों को बतलाया है। उनमें से देवायु के बन्धकारण इस प्रकार हैं
मनुष्य और तिर्यंच ही देवायु के बन्ध की योग्यता रखते हैं और