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प्रथम कर्मग्रन्थ होती है, इसी से ज्ञानावरण के बाद दर्शनावरणकर्म का कथन किया गया है। ज्ञानावरण और दर्शनावरण इन दोनों कामों के तीव्र उदय से दुःख का तथा इनके विशिष्ट क्षयोपशम से सुख का अनुभव होता है, इसलिए उन दोनों के बाद वेदनीयकर्म का कथन किया गया है। वेदनीयकर्म के अनन्तर मोहनीयकर्म के कहने का आशय यह है कि सुख-दुख वेदने के समय अवश्य ही राग-द्वेष का उदय हो आता है । मोहनीय के अनन्तर आयुकर्म का पाठ इसलिए है कि मोह व्याकुल जीव आरम्भ आदि करके आयु का बन्ध करता ही है । जिसको आयु का उदय हुआ, उसे गति आदि नामकर्म भी भोगने ही पड़ते हैं। इसी को बताने के लिए अशु के यात्मा गान है : गति आदि नामकर्म के उदय वाले जीव को उच्च या नीच गोत्र का विपाक भोगना पड़ता है. इसी से नाम के बाद गोत्रकर्म का कथन है। उच्च गोत्र वालों को दानान्तराय आदि का क्षयोपशम होता है और नीच गोविपाकी जीवों को दानान्तराय आदि का उदय रहता है-इसी आशय को बताने के लिए गोय के पश्चात् अन्तराय कर्म का निर्देश किया गया है।
दिगम्बर ग्रन्थ गोम्मटसार कर्मकांड में अष्ट कर्मों के कथन-क्रम विषयक उपपत्ति लगभग पूर्वोक्त जैसी है। परन्तु जानने योग्य बात यह है कि अन्तरायकर्म घाती होने पर भी सबसे पीछे अर्थात् अघातिकर्म के पीछे कहने का आशय इतना ही है कि वह कर्म घाती होने पर भी अधाति कर्मों की तरह जीव के गुण का सर्वथा घात नहीं करता तथा उसका उदय नाम आदि अघातिकमों के निमित्त से होता है तथा वेदनीय कर्म अधाति होने पर भी उसका पाठ घातिकर्मों के बीच इसलिए किया गया है कि वह घातिकर्म की तरह मोहनीयकर्म के बल से जीव के गुण का घात करता है।