Book Title: Karmagrantha Part 1
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur

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Page 261
________________ प्रथम कमी ___ अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञान को उत्पत्ति- इसके सम्बन्ध में दिगम्बर साहित्य में जो उल्लेख है, वह श्वेताम्बर साहित्य में देखने में नहीं आया है। अवधिज्ञान की उत्पत्ति के सम्बन्ध में दिगम्बर. साहित्य का मंतव्य यह है कि अवधिज्ञान की उत्पत्ति आत्मा के उन्हीं प्रदेशों से होती है, जो कि शंख आदि शुभ चिह्न वाले अंगों में वर्तमान होते हैं । मनःपर्ययज्ञान की उत्पत्ति आत्मा के उन प्रदेशों से होती है, जिनका सम्बन्ध द्रव्यमन के साथ है, और द्रव्यमन का स्थान हृदय ही है, अर्थात हृदयभाग में स्थित आत्मा के प्रदेशों में ही मनःपर्ययज्ञान का क्षयोपशम है। __ द्रव्यमन-इसके लिए जो कल्पना दिगम्बर साहित्य में है, वह श्वेताम्बर साहित्य में नहीं है । दिगम्बर साहित्य में इस प्रकार कहा गया है - द्रव्यमन हृदय में ही है । उसका आकार आठपत्र बाले कमल का-सा है। वह मनोवगणा के स्कन्धों से बनता है। उसके बनने में अन्तरंगकार. अंगोपांगनामकर्म का उदय है। मिथ्यात्वमोहनीय के तीन भेद-मिथ्यात्व मोहनीय के तीन भेदोंसम्यक्त्व, मिथ्यात्त्र और मिश्र की कल्पना के लिए येताम्बर साहित्य में 'कोदों के छाछ से धोये और भूसे से रहित शुद्ध (सम्यक्त्व), भूमे सहित और न धोये हुए अशुद्ध (मिथ्यात्व) और कुछ धोये हुए और कुछ न धोये हुए मिले को अर्धविशुद्ध (मिश्र) माना है। लेकिन दिगम्बर साहित्य में चक्की से दले हाए, कोदों में से जो भूमे के साथ हैं वे अशुद्ध (मिथ्यात्व), जो भूमे से बिलकुल रहित हैं, वे शुद्ध (सम्यक्त्व) और कण (अर्द्ध विशुद्ध-मिश्र) माने गये हैं और प्राथमिक उपशम १. गोम्मट'सार, जीवकांउ, गाथा ४४२ २. गोम्मटसार, जीप कांड, गाथा ४४१

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