Book Title: Karmagrantha Part 1
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur

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Page 262
________________ १५२ कर्मविपाक सम्यक्त्वपरिणाम (ग्रन्थिभेदजन्य सम्यक्त्व) जिससे मोहनीय के दलिक शुद्ध होते हैं, उसे चक्की स्थानीय माना गया है ।' कषायों को उपमा-कर्मग्रन्थ में और गोम्मटसार जीवकांड गाथा २८६ में कषायों को जिन-जिन पदार्थों की उपमा दी गई है. वे सब एक-से ही हैं : भेट केवल इतना ही है कि पारसार में प्रस्मास्यानावरण लोभ के लिए शरीर के मैल की उपमा दी है और कर्मग्रन्थ में काजल की उपमा दी है। अपवर्त्य आयु–कर्मग्रन्थ गाथा २३ की व्याख्या में अपवर्त्य आयु का स्वरूप बताया गया है। जिसमें इस' मरण को अकालमरण कहा गया है और गोम्मटसार कर्मकांड गाथा ५७ में 'कदलीधातमरण' कहा है। यह कदलीघात' शब्द अकालमृत्यु के अर्थ में अन्यत्र कहीं दृष्टिगोचर नहीं होता है। ___आठ कर्मों का क्रम – ज्ञानाबरणादि आठ कर्मों के कथनक्रम की उत्पत्ति श्वेताम्बर ग्रन्थ पंचसंग्रह की टीका, कर्मविपाक की टीका, जयसोमसूरिकृत टब्बा और जीवविजयजीकृत बालवबोध में इस प्रकार बताई है उपयोग, यह जीव का लक्षण है । इसके ज्ञान और दर्शन, ये दो भेद हैं। उनमें ज्ञान प्रधान माना जाता है। ज्ञान से ही किसी शास्त्र का विचार किया जा सकता है । जब कोई लब्धि प्राप्त होती है, तब जीव झानोपयोग युक्त होता है। मोक्ष की प्राप्ति भी ज्ञानोपयोग के समय होती है। अतः ज्ञान के आवरणभूत कर्म-ज्ञानावरण का कथन सबसे पहले किया गया है। दर्शन की प्रवृत्ति जीवों के ज्ञान के अनन्तर १. गोम्मटसार, कर्मकांड, गाथा २६

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